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विवेक-चूडामणि
शान्त और कहीं अजगरके समान निश्चल भावसे पड़ा दीख पड़ता है। इस प्रकार निरन्तर परमानन्दमें मग्न हुआ विद्वान् कहीं सम्मानित, कहीं अपमानित और कहीं अज्ञात रहकर अलक्षित गतिसे विचरता है। निर्धनोऽपि सदा तुष्टोऽप्यसहायो महाबलः । नित्यतृप्तोऽप्यभुञ्जानोऽप्यसमः समदर्शनः । ५४४ ॥
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वह निर्धन होनेपर भी सदा सन्तुष्ट, असहाय होनेपर भी महाबलवान्, भोजन न करनेपर भी नित्य- तृप्त और विषमभावसे बर्तता हुआ भी समदर्शी होता है। अपि कुर्वन्नकुर्वाणश्चाभोक्ता फलभोग्यपि । परिच्छिन्नोऽपि सर्वगः ॥ ५४५ ॥
शरीर्यप्यशरीर्येष
वह महात्मा सब कुछ करता हुआ भी अकर्ता है, नाना प्रकारके फल भोगता हुआ भी अभोक्ता है, शरीरधारी होनेपर भी अशरीरी है और परिच्छिन्न होनेपर भी सर्वव्यापी है।
अशरीरं सदा सन्तमिमं ब्रह्मविदं क्वचित्।
प्रियाप्रिये न स्पृशतस्तथैव च शुभाशुभे ॥ ५४६ ॥ सदा अशरीर-भावमें स्थित रहनेसे इस ब्रह्मवेत्ताको प्रिय अथवा अप्रिय तथा शुभ अथवा अशुभ कभी छू नहीं सकते। स्थूलादिसम्बन्धवतोऽभिमानिनः
सुखं च दुःखं च शुभाशुभे च ।
विध्वस्तबन्धस्य सदात्मनो मुनेः
कुतः शुभं वाप्यशुभं फलं वा ॥ ५४७ ॥ जिस देहाभिमानीका स्थूल सूक्ष्म आदि देहोंसे सम्बन्ध होता है, उसीको सुख अथवा दुःख तथा शुभ अथवा अशुभकी प्राप्ति होती है; जिसका देहादि - बन्धन टूट गया है, उस सत्स्वरूप मुनिको शुभ अथवा अशुभ फलकी प्राप्ति कैसे हो सकती है?
ग्रस्तवद्भानादग्रस्तोऽपि रविर्जनैः ।
तमसा
ग्रस्त इत्युच्यते भ्रान्त्या ह्यज्ञात्वा वस्तुलक्षणम् ॥ ५४८ ॥