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उपदेशका उपसंहार
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तद्वद्देहादिबन्धेभ्यो विमुक्तं ब्रह्मवित्तमम्। पश्यन्ति देहिवन्मूढाः शरीराभासदर्शनात्॥५४९ ॥
वास्तविक बातको न जाननेके कारण जैसे राहुसे ग्रस्त न होनेपर भी ग्रस्त-सा प्रतीत होनेके कारण लोग भ्रमवश सूर्यको राहु-ग्रस्त कहते हैं; वैसे ही देहादि-बन्धनसे छूटे हुए ब्रह्मवेत्ताका आभासमात्र शरीर देखकर अज्ञानीजन उसे देहयुक्त-सा मानते हैं।
अहिनिल्वयनीवायं मुक्तदेहस्तु तिष्ठति। इतस्ततश्चाल्यमानो यत्किञ्चित्प्राणवायुना॥५५०॥
यह मुक्त पुरुषका शरीर तो साँपकी काँचुलीके समान प्राणवायुद्वारा कुछ इधर-उधर चलायमान होता हुआ पड़ा रहता है। [उसमें कर्तृत्वाभिमानका अत्यन्ताभाव होनेके कारण वास्तवमें क्रिया नहीं होती।] स्रोतसा नीयते दारु यथा निम्नोन्नतस्थलम्। दैवेन नीयते देहो यथाकालोपभुक्तिषु॥५५१॥
जैसे जलके प्रवाहसे लकड़ी ऊँचे-नीचे स्थानोंमें बहा ले जायी जाती है, उसी प्रकार दैवके द्वारा ही उसका शरीर समयानुकूल भोगोंको प्राप्त करता है। प्रारब्धकर्मपरिकल्पितवासनाभिः
संसारिवच्चरति भुक्तिषु मुक्तदेहः । सिद्धः स्वयं वसति साक्षिवदन तूष्णीं
चक्रस्य मूलमिव कल्पविकल्पशून्यः॥५५२॥ मुक्त पुरुषका शरीर प्रारब्धकर्मसे कल्पित वासनाओंद्वारा संसारी पुरुषके समान नाना भोगोंको भोगता है। सिद्ध पुरुष तो स्वयं कुलाल-चक्रके मूलकी भाँति संकल्प-विकल्पसे रहित होकर साक्षी-भावसे मौन होकर रहता है। नैवेन्द्रियाणि विषयेषु नियुक्त एष
नैवापयुक्त उपदर्शनलक्षणस्थः। नैव क्रियाफलमपीषदवेक्षते स
स्वानन्दसान्द्ररसपानसुमत्तचित्तः ॥५५३॥