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उपदेशका उपसंहार
विमानमालम्ब्य शरीरमेतद्
भुनक्त्यशेषान्विषयानुपस्थितान् । परेच्छया बालवदात्मवेत्ता
योऽव्यक्तलिङ्गोऽननुषक्तबाह्यः ॥५४०॥ वह आत्मज्ञानी महापुरुष इस शरीररूप विमानमें बैठकर अर्थात् अपने सर्वाभिमानशून्य शरीरका आश्रय लेकर दूसरोंके द्वारा उपस्थित किये समस्त विषयोंको बालकके समान भोगता है; किन्तु वास्तवमें वह प्रकटचिह्नरहित और बाह्य पदार्थोंमें आसक्तिरहित होता है। दिगम्बरो वापि च साम्बरो वा
त्वगम्बरो वापि चिदम्बरस्थः। उन्मत्तवद्वापि च बालवद्वा
पिशाचवद्वापि चरत्यवन्याम्॥५४१॥ चैतन्यरूप वस्त्रसे युक्त वह महाभाग्यवान् पुरुष वस्त्रहीन, वस्त्रयुक्त अथवा मृगचर्मादि धारण करनेवाला होकर उन्मत्तके समान, बालकके समान अथवा पिशाचादिके समान स्वेच्छानुकूल भूमण्डलमें विचरता रहता है। कामान्नी कामरूपी संश्चरत्येकचरो मुनिः। स्वात्मनैव सदा तुष्टः स्वयं सर्वात्मना स्थितः॥५४२॥
स्वयं सर्वात्मभावसे स्थित, सदा अपने आत्मामें ही सन्तुष्ट और अकेला विचरनेवाला वह मुनि अपने इच्छानुसार (जब इच्छा हो तब) अन्न ग्रहण करता है और मनमाना रूप धारणकर विचरता रहता है। क्वचिन्मूढो विद्वान्क्वचिदपि महाराजविभवः क्वचिद्धान्तः सौम्यः क्वचिदजगराचारकलितः। क्वचित्पात्रीभूतः क्वचिदवमतः क्वाप्यविदितश्चरत्येवं प्राज्ञः सततपरमानन्दसुखितः ।। ५४३ ॥
ब्रह्मवेत्ता महापुरुष कहीं मूढ, कहीं विद्वान् और कहीं राजामहाराजाओंके-से ठाट-बाटसे युक्त दिखायी देता है। वह कहीं भ्रान्त, कहीं