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विवेक-चूडामणि
यह [ सर्वसाक्षी ] आत्मा स्वयंप्रकाश, अनन्तशक्ति, अप्रमेय और सर्वानुभवस्वरूप है, इसको ही जान लेनेपर वह ब्रह्मवेत्ताओंमें सर्वश्रेष्ठ महात्मा संसार-बन्धनसे मुक्त होकर धन्य हो जाता है। न खिद्यते नो विषयैः प्रमोदते
न सज्जते नापि विरज्यते च। स्वस्मिन्सदा क्रीडति नन्दति स्वयं
निरन्तरानन्दरसेन तृप्तः॥५३७॥ विषयोंके प्राप्त होनेपर वह न दुःखी होता है, न आनन्दित होता है, न उनमें आसक्त होता है और न उनसे विरक्त होता है। वह तो निरन्तर आत्मानन्दरससे तृप्त होकर स्वयं अपने-आपमें ही क्रीडा करता और आनन्दित होता है।
क्षुधां देहव्यथां त्यक्त्वा बालः क्रीडति वस्तुनि। तथैव विद्वान् रमते निर्ममो निरहं सुखी॥५३८॥
जिस प्रकार खिलौना मिलनेपर बालक अपनी भूख और शारीरिक व्यथाको भी भूलकर उससे खेलनेमें लगा रहता है उसी प्रकार अहंकार और ममतासे शून्य होकर विद्वान् अपने आत्मामें आनन्दपूर्वक रमण करता रहता है। चिन्ताशून्यमदैन्यभैक्षमशनं पानं सरिद्वारिषु स्वातन्त्र्येण निरङ्कुशा स्थितिरभीर्निद्रा श्मशाने वने। वस्त्रं क्षालनशोषणादिरहितं दिग्वास्तुशय्या मही सञ्चारो निगमान्तवीथिषु विदां क्रीडा परे ब्रह्मणि॥५३९॥
ब्रह्मवेत्ता विद्वान्का चिन्ता और दीनतारहित भिक्षान्न ही भोजन तथा नदियोंका जल ही पान होता है। उनकी स्थिति स्वतन्त्रतापूर्वक और निरंकुश (मनमांनी) होती है। उन्हें किसी प्रकारका भय नहीं होता, वे वन अथवा श्मशानमें सुखकी नींद सोते हैं। धोने-सुखाने आदिकी अपेक्षासे रहित दिशा [ अथवा वल्कलादि ] ही उनके वस्त्र हैं, पृथिवी ही बिछौना है, उनका आना-जाना वेदान्त-वीथियोंमें ही हुआ करता है और परब्रह्ममें ही उनकी क्रीडा होती है।