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विवेक-चूडामणि तटस्थिता बोधयन्ति गुरवः श्रुतयो यथा। प्रज्ञयैव
तरेद्विद्वानीश्वरानुगृहीतया॥ ४७७॥ श्रुतिके समान गुरु भी ब्रह्मका केवल तटस्थरूपसे ही बोध कराते हैं; विद्वान्को चाहिये कि अपनी ही ईश्वरानुगृहीत* बुद्धिसे [उसका साक्षात् अनुभव करके] इस संसार-सागरके पार हो जाय। स्वानुभूत्या स्वयं ज्ञात्वा स्वमात्मानमखण्डितम्। संसिद्धः ससुखं तिष्ठेन्निर्विकल्पात्मनात्मनि ॥ ४७८ ॥
अपने अनुभवसे अखण्ड आत्माको स्वयं जानकर सिद्ध हुआ पुरुष निर्विकल्पभावसे आनन्दपूर्वक सदा आत्मामें ही स्थित रहे। वेदान्तसिद्धान्तनिरुक्तिरेषा
ब्रह्मैव जीवः सकलं जगच्च। अखण्डरूपस्थितिरेव मोक्षो
ब्रह्माद्वितीये श्रुतयः प्रमाणम्॥ ४७९॥ वेदान्तका सिद्धान्त तो यही कहता है कि जीव और सम्पूर्ण जगत् केवल ब्रह्म ही है और उस अद्वितीय ब्रह्ममें निरन्तर अखण्डरूपसे स्थित रहना ही मोक्ष है। ब्रह्म अद्वितीय है-इस विषयमें श्रुतियाँ प्रमाण हैं।
* ब्रह्मका साक्षात् निरूपण कोई भी नहीं कर सकता, क्योंकि वह शब्दकी शक्तिवृत्तिसे बाहर है-शब्द वहाँतक पहुँच ही नहीं सकता। उसका ज्ञान तो लक्षणावृत्तिसे ही हो सकता है। अतः ब्रह्मका साक्षात्कार करनेके लिये उसकी उपाधिरूप इस निखिल प्रपंचका बाध करना पड़ता है, क्योंकि इसीने उसके स्वरूपको आच्छादित किया हुआ है। किन्तु दृश्यका बाध उसमें मिथ्यात्व-बुद्धि हुए बिना हो नहीं सकता और ऐसी बुद्धि शिष्यको ईश्वर-कृपाके प्रभावसे ही प्राप्त होती है। इसलिये बोध होनेके लिये शास्त्र-कृपा और गुरु-कृपाके समान भगवत्कृपा भी अत्यन्त आवश्यक है।