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आत्मानुभवका उपदेश
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भवानपीदं परतत्त्वमात्मनः
स्वरूपमानन्दघनं विचार्य। विधूय मोहं स्वमनःप्रकल्पितं
मुक्तः कृतार्थों भवतु प्रबुद्धः॥ ४७३॥ अत: हे वत्स! तुम भी आत्माके इस परमतत्त्व और आनन्दघनस्वरूपका विचार करते हुए अपने मन:कल्पित मोहको छोड़कर मुक्त हो जाओ और इस प्रकार अज्ञान-निद्रासे जगकर कृतार्थ हो जाओ। समाधिना साधु विनिश्चलात्मना
पश्यात्मतत्त्वं स्फुटबोधचक्षुषा। निःसंशयं सम्यगवेक्षितश्चे
च्छूतः पदार्थो न पुनर्विकल्प्यते।। ४७४॥ समाधिके द्वारा भली प्रकार निश्चल हुए चित्त और विकसित ज्ञाननेत्रोंसे इस आत्मतत्त्वको देखो, क्योंकि यदि सुना हुआ पदार्थ निःसन्देह होकर भली प्रकार देख लिया जाता है तो उसके विषयमें फिर कोई संशय नहीं होता। स्वस्याविद्याबन्धसम्बन्धमोक्षात्
सत्यज्ञानानन्दरूपात्मलब्धौ । शास्त्रं युक्तिर्देशिकोक्तिः प्रमाणं
चान्त:सिद्धा स्वानुभूतिः प्रमाणम्॥ ४७५॥ अपने अज्ञानरूप बन्धनका संसर्ग छूट जानेसे जो सच्चिदानन्दस्वरूप आत्माकी प्राप्ति होती है-उसमें शास्त्र, युक्ति, गुरु-वाक्य और अन्त:करणसे सिद्ध होनेवाला अपना अनुभव प्रमाण है।
बन्धो मोक्षश्च तृप्तिश्च चिन्तारोग्यक्षुधादयः । स्वेनैव वेद्या यज्ज्ञानं परेषामानुमानिकम्॥ ४७६ ॥
बन्धन, मोक्ष, तृप्ति, चिन्ता, आरोग्य और भूख आदि तो अपने-आप ही जाने जाते हैं, दूसरोंको उनका जो ज्ञान होता है वह तो केवल आनुमानिक ही है।