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विवेक-चूडामणि
इसी प्रकार सदा ब्रह्मभावमें रहनेवाला पुरुष ब्रह्मरूपसे ही स्थित रहता हैं, वह [ ब्रह्मके सिवा ] और कुछ नहीं देखता । जैसे स्वप्नमें देखे हुए पदार्थोंकी याद आया करती है वैसे ही विद्वान्की भोजन करना और छोड़ना आदि क्रियाएँ स्वभाववश अपने-आप हुआ करती हैं। कर्मणा निर्मितो देहः प्रारब्धं तस्य कल्प्यताम् । नानादेरात्मनो युक्तं नैवात्मा
कर्मनिर्मितः ॥ ४५९ ।।
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देह कर्मोंहीसे बना हुआ है, अतः प्रारब्ध भी उसीका समझना चाहिये, अनादि आत्माका प्रारब्ध मानना ठीक नहीं, क्योंकि आत्मा कर्मोंसे बना हुआ नहीं है। अजो नित्य इति ब्रूते श्रुतिरेषा त्वमोघवाक् ।
तदात्मना तिष्ठतोऽस्य कुतः प्रारब्धकल्पना ॥ ४६० ॥
'आत्मा अजन्मा, नित्य और अनादि है' ऐसा यथार्थ कथन करनेवाली श्रुति कहती है; फिर उस आत्मस्वरूपसे ही सदा स्थित रहनेवाले विद्वान्के प्रारब्ध कर्म शेष रहनेकी कल्पना कैसे हो सकती है ?
प्रारब्धं सिध्यति तदा यदा देहात्मना स्थितिः । देहात्मभावो नैवेष्टः प्रारब्धं त्यज्यतामतः ॥ ४६१ ॥
प्रारब्ध तो तभीतक सिद्ध होता है जबतक देहमें आत्मभावना रहती है और देहात्मभाव मुमुक्षुके लिये इष्ट नहीं है; इसलिये प्रारब्धकी आस्थाको भी छोड़ देना चाहिये ।
शरीरस्यापि प्रारब्धकल्पना भ्रान्तिरेव हि । अध्यस्तस्य कुतः सत्त्वमसत्त्वस्य कुतो जनिः । अजातस्य कुतो नाशः प्रारब्धमसतः कुतः ॥ ४६२ ॥
और वास्तवमें तो शरीरका भी प्रारब्ध मानना भ्रम ही है, क्योंकि वह तो स्वयं अध्यस्त (भ्रमसे कल्पित) है और अध्यस्त वस्तुकी सत्ता ही कहाँ होती है ? तथा जिसकी सत्ता ही न हो, उसका जन्म भी कहाँसे आया ? और जिसका जन्म ही न हो, उसका नाश भी कैसे हो सकता है। इस प्रकार जो सर्वथा सत्ताशून्य है, उस [ शरीर ] का भी प्रारब्ध कैसे हो सकता है ?