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नानात्व-निषेध
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ज्ञानेनाज्ञानकार्यस्य समूलस्य लयो यदि। तिष्ठत्ययं कथं देह इति शङ्कावतो जडान्। समाधातुं बाह्यदृष्ट्या प्रारब्धं वदति श्रुतिः ॥ ४६३॥ न तु देहादिसत्यत्वबोधनाय विपश्चिताम्। यतः श्रुतेरभिप्रायः परमार्थंकगोचरः॥४६४॥
जिनको ऐसी शंका होती है कि यदि ज्ञानसे अज्ञानका मूलसहित नाश हो जाता है तो ज्ञानीका यह स्थूल देह कैसे रहता है, उन मूल्को समझानेके लिये श्रुति ऊपरी दृष्टिसे (व्यवहारसत्ताको लेकर) प्रारब्धको उसका कारण बतला देती है। वह विद्वान्को देहादिका सत्यत्व समझानेके लिये ऐसा नहीं कहती; क्योंकि श्रुतिका अभिप्राय तो एकमात्र परमार्थ वस्तुका वर्णन करनेमें ही है।
नानात्व-निषेध परिपूर्णमनाद्यन्तमप्रमेयमविक्रियम् एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ॥४६५॥
[ श्रुति कहती है- ] वास्तवमें सर्वत्र परिपूर्ण, अनादि, अनन्त, अप्रमेय और अविकारी एक अद्वितीय ब्रह्म ही है; उसमें और कोई नाना पदार्थ नहीं है। सद्घनं चिद्घनं नित्यमानन्दघनमक्रियम्। एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन॥ ४६६॥
जो घनीभूत सत्, चित् और आनन्द है; ऐसा एक नित्य, अक्रिय और अद्वितीय ब्रह्म ही सत्य वस्तु है; उसमें कोई नाना पदार्थ नहीं है। प्रत्यगेकरसं पूर्णमनन्तं सर्वतोमुखम्। एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन॥ ४६७॥
जो अन्तरात्मा, एकरस, परिपूर्ण, अनन्त और सर्वव्यापक है ऐसा एक अद्वितीय ब्रह्म ही है; उसमें नाना पदार्थ कोई नहीं है।
अहेयमनुपादेयमनाधेयमनाश्रयम् एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ॥४६८॥