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प्रारब्ध-विचार
उपाधितादात्म्यविहीनकेवल
ब्रह्मात्मनैवात्मनि तिष्ठतो मुनेः। प्रारब्धसद्भावकथा न युक्ता
स्वप्नार्थसम्बन्धकथेव जाग्रतः॥४५५॥ जो मुनिश्रेष्ठ उपाधिके सम्बन्धको छोड़कर केवल ब्रह्मात्मभावसे ही अपने स्वरूपमें स्थित रहता है, उसके प्रारब्ध-कर्मोंकी स्थितिकी बात स्वप्नमें देखे हुए पदार्थों से जगे हुए पुरुषका सम्बन्ध बतानेके समान अनुचित है। न हि प्रबुद्धः प्रतिभासदेहे
देहोपयोगिन्यपि च प्रपञ्चे। करोत्यहन्तां ममतामिदन्तां
किन्तु स्वयं तिष्ठति जागरेण॥४५६॥ जगा हुआ पुरुष स्वप्नके प्रातिभासिक देह तथा उस देहके उपयोगी स्वप्न-प्रपंचमें कभी अहंता, ममता और इदंता (मैंपन, मेरापन और यहपन) नहीं करता। वह तो केवल जाग्रत्-भावसे ही रहता है। न तस्य मिथ्यार्थसमर्थनेच्छा
न सङ्ग्रहस्तज्जगतोऽपि दृष्टः। तत्रानुवृत्तिर्यदि चेन्मृषार्थे ।
न निद्रया मुक्त इतीष्यते ध्रुवम्॥ ४५७॥ उसको न तो मिथ्या वस्तुओंको सिद्ध करनेकी इच्छा होती है और न उसके पास सांसारिक पदार्थोंका संग्रह ही देखा जाता है। यदि फिर भी उसकी मिथ्या पदार्थोंमें प्रवृत्ति रहे तो यह निश्चय है कि वास्तवमें उसकी नींद टूटी ही नहीं है। तद्वत्यरे ब्रह्मणि वर्तमानः
सदात्मना तिष्ठति नान्यदीक्षते। स्मृतिर्यथा स्वजविलोकितार्थे
तथा विदः प्राशनमोचनादौ ॥ ४५८॥