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विवेक-चूडामणि
स्वमसङ्गमुदासीनं परिज्ञाय नभो यथा। न श्लिष्यते यतिः किञ्चित्कदाचिद्भाविकर्मभिः ॥ ४५०॥
जो यति अपनेको आकाशके समान असंग और उदासीन जान लेता है, वह किसी भी आगामी कर्मसे कभी थोड़ा-सा भी लिप्त नहीं हो सकता।
न नभो घटयोगेन सुरागन्धेन लिप्यते। तथात्मोपाधियोगेन तद्धमैनँव लिप्यते ॥ ४५१ ।।
जैसे घड़ेके सम्बन्धसे घड़ेमें रखी हुई मदिराकी गन्धसे आकाशका कोई सम्बन्ध नहीं होता उसी प्रकार उपाधिके सम्बन्धसे आत्मा उपाधिके धर्मोंसे लिप्त नहीं होता। ज्ञानोदयात्पुरारब्धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति। अदत्त्वा स्वफलं लक्ष्यमुद्दिश्योत्सृष्टबाणवत्॥ ४५२॥ व्याघ्रबुद्ध्या विनिर्मुक्तो बाणः पश्चात्तु गोमतौ। न तिष्ठति छिनत्त्येव लक्ष्यं वेगेन निर्भरम्॥ ४५३॥
लक्ष्यकी ओर छोड़ दिये गये बाणके समान ज्ञानके उदयसे पूर्व ही आरम्भ हुआ कर्म अपना फल दिये बिना ज्ञानसे नष्ट नहीं होता, जैसे व्याघ्र समझकर गौकी ओर छोड़ा हुआ बाण पीछे उसको गौ जान लेनेपर भी बीचमें नहीं रोका जा सकता, वह तो तुरन्त अपने लक्ष्यको वेध ही देता है।
प्रारब्धं बलवत्तरं खलु विदां भोगेन तस्य क्षयः सम्यग्ज्ञानहुताशनेन विलयः प्राक्सञ्चितागामिनाम्। ब्रह्मात्मैक्यमवेक्ष्य तन्मयतया ये सर्वदा संस्थितास्तेषां तत्रितयं न हि क्वचिदपि ब्रह्मैव ते निर्गुणम्॥४५४॥
विद्वान्का प्रारब्ध-कर्म अवश्य ही बलवान् होता है। उसका क्षय भोगनेसे ही हो सकता है। उसके अतिरिक्त पूर्वसंचित और आगामी कर्मोका तो तत्त्वज्ञानरूप अग्निसे क्षय हो जाता है। किन्तु जो ब्रह्म और आत्माकी एकताको जानकर सदा उसी भावमें स्थित रहते हैं उनकी दृष्टिमें तो वे (प्रारब्ध, संचित और आगामी) तीनों प्रकारके ही कर्म कहीं नहीं हैं, वे तो मानो साक्षात् निर्गुण ब्रह्म ही हैं।