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विवेक-चूडामणि
प्रलयकालके समुद्रके समान अत्यन्त परिपूर्ण एक पदार्थमें जो निर्विकार, निराकार और निर्विशेष है, भला भेद कहाँसे आ गया ? तेजसीव तमो यत्र प्रलीनं भ्रान्तिकारणम् । अद्वितीये परे तत्त्वे निर्विशेषे भिदा कुतः ॥ ४०३ ॥
प्रकाशमें जैसे अन्धकार लीन हो जाता है वैसे ही जिसमें भ्रमका कारण अज्ञान लीन होता है उस अद्वितीय और निर्विशेष परमतत्त्वमें भला भेद कहाँसे आ गया ? एकात्मके परे तत्त्वे भेदवार्ता कथं भवेत् । सुषुप्तौ सुखमात्रायां भेदः केनावलोकितः ॥ ४०४ ॥ एकात्मक अद्वितीय परमतत्त्वमें भला भेदकी बात ही क्या हो सकती है? केवल सुख-स्वरूपा सुषुप्तिमें किसने विभिन्नता देखी है ? नह्यस्ति परतत्त्वबोधात् ब्रह्मणि निर्विल्पे ।
विश्वं सदात्मनि नाप्यहिरीक्षितो गुणे नह्यम्बुबिन्दुर्मृगतृष्णिकायाम्
कालत्रये
॥ ४०५ ॥
परमतत्त्वके जान लेनेपर सत्स्वरूप निर्विकल्प परब्रह्ममें विश्वका कहीं पता भी नहीं चलता; तीनों कालमें भी कभी किसीने रज्जुमें सर्प
और मृगतृष्णामें जलकी बूँद नहीं देखी। मायामात्रमिदं
द्वैतमद्वैतं
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परमार्थतः ।
इति ब्रूते श्रुतिः साक्षात्सुषुप्तावनुभूयते ॥ ४०६ ॥ श्रुति साक्षात् कहती है कि यह द्वैत मायामात्र है, वास्तवमें तो अद्वैत ही है; और ऐसा ही सुषुप्तिमें अनुभव भी होता है ।
अनन्यत्वंमधिष्ठानादारोप्यस्य निरीक्षितम् । पण्डितै रज्जुसर्पादौ विकल्पो भ्रान्तिजीवनः ॥ ४०७ ॥
रज्जुसर्प आदिमें बुद्धिमान् पुरुषोंने अध्यस्त वस्तुका अधिष्ठानसे अभेद स्पष्ट देखा है, इसलिये [ ब्रह्ममें अध्यस्त यह संसाररूप ] विकल्प अज्ञानजन्य भ्रमके कारण ही जीवित (स्थित) है।