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प्रपंचका बाध
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आश्रय बना रहकर उसको दूसरोंसे अत्यन्त क्लेश भोगना पड़ता है। किन्तु जब वह अपने कल्याणस्वरूप, अचल और शुद्ध आत्माका साक्षात्कार कर लेता है तो उन समस्त क्लेशोंसे मुक्त हो जाता है। .
प्रपंचका बाध स्वात्मन्यारोपिताशेषाभासवस्तुनिरासतः । स्वयमेव परं ब्रह्म पूर्णमद्वयमक्रियम्॥३९८ ॥
अपने आत्मामें आरोपित समस्त कल्पित वस्तुओंका निरासकर देनेपर मनुष्य स्वयं अद्वितीय, अक्रिय और पूर्ण परब्रह्म ही है। समाहितायां सति चित्तवृत्तौ
परात्मनि ब्रह्मणि निर्विकल्पे। न दृश्यते कश्चिदयं विकल्पः
प्रजल्पमात्रः परिशिष्यते ततः॥३९९॥ निर्विकल्प परमात्मा परब्रह्ममें चित्तवृत्तिके स्थिर हो जानेपर यह दृश्य विकल्प कहीं भी दिखायी नहीं देता। उस समय यह केवल वाचारम्भण (वाणीकी बकवाद) मात्र ही रह जाता है।
असत्कल्पो विकल्पोऽयं विश्वमित्येकवस्तुनि। निर्विकारे निराकारे निर्विशेषे भिदा कुतः॥४००॥
उस एक वस्तु ब्रह्ममें यह संसार मिथ्या वस्तुके सदृश कल्पनामात्र है। भला निर्विकार, निराकार और निर्विशेष वस्तुमें भेद कहाँसे आया? द्रष्ट्रदर्शनदृश्यादिभावशून्यैकवस्तुनि । निर्विकारे निराकारे निर्विशेषे भिदा कुतः॥ ४०१॥
उस द्रष्टा, दृश्य और दर्शन आदि भावोंसे शून्य, निर्विकार, निराकार और निर्विशेष एक वस्तुमें भला भेद कहाँसे आया? कल्पार्णव इवात्यन्तपरिपूर्णैकवस्तुनि। निर्विकारे निराकारे निर्विशेषे भिदा कुतः॥४०२॥