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विवेक-चूडामणि
जो परब्रह्म स्वयं आकाशके समान निर्मल, निर्विकल्प, नि:सीम, निश्चल, निर्विकार, बाहर-भीतर सब ओरसे शून्य, अनन्य और अद्वितीय है वह क्या ज्ञानका विषय हो सकता है?
वक्तव्यं किमु विद्यतेऽत्र बहुधा ब्रह्मैव जीवः स्वयं ब्रह्मेतज्जगदाततं नु सकलं ब्रह्माद्वितीयं श्रुतेः। ब्रह्मैवाहमिति प्रबुद्धमतयः सन्त्यक्तबाह्याः स्फुटं ब्रह्मीभूय वसन्ति सन्ततचिदानन्दात्मनैव ध्रुवम्॥३९५॥
इस विषयमें और अधिक क्या कहना है? जीव तो स्वयं ब्रह्म ही है और ब्रह्म ही यह सम्पूर्ण जगत्-रूपसे फैला हुआ है, क्योंकि श्रुति भी कहती है कि ब्रह्म अद्वितीय है। और यह निश्चय है, जिनको यह बोध हुआ है कि मैं ब्रह्म ही हूँ वे बाह्य विषयोंको सर्वथा त्यागकर ब्रह्मभावसे सदा सच्चिदानन्दस्वरूपसे ही स्थित रहते हैं। जहि मलमयकोशेऽहंधियोत्थापिताशां
प्रसभमनिलकल्पे लिङ्गदेहेपि पश्चात्। निगमगदितकीर्तिं नित्यमानन्दमूर्ति
स्वयमिति परिचीय ब्रह्मरूपेण तिष्ठ॥३९६॥ इस मलमय कोशमें अहंबुद्धिसे हुई आसक्तिको छोड़ो और इसके पश्चात् वायु-रूप लिंगदेहमें भी उसका दृढ़तापूर्वक त्याग करो, तथा जिसकी कीर्तिका वेद बखान करते हैं उस आनन्दस्वरूप ब्रह्मको ही अपना स्वरूप जानकर सदा ब्रह्मरूपसे ही स्थिर होकर रहो। शवाकारं यावद्भजति मनुजस्तावदशुचिः परेभ्य: स्यात्क्लेशो जननमरणव्याधिनिलयः। यदात्मानं शुद्धं कलयति शिवाकारमचलं तदा तेभ्यो मुक्तो भवति हि तदाह श्रुतिरपि।। ३९७ ।।
श्रुति भी यही कहती है कि मनुष्य जबतक इस मृतकतुल्य देहमें आसक्त रहता है तबतक वह अत्यन्त अपवित्र रहता है और जन्म, मरण तथा व्याधियोंका