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आत्म- -दृष्टि
तरङ्गफेनभ्रमबुदबुदादि
सर्वं स्वरूपेण जलं यथा तथा । देहाद्यहमन्तमेतत्
चिदेव
सर्वं चिदेवैकरसं विशुद्धम् ॥ ३९९ ॥
जैसे तरंग, फेन, भँवर और बुद्बुद आदि स्वरूपसे सब जल ही हैं, वैसे ही देहसे लेकर अहंकारपर्यन्त यह सारा विश्व भी अखण्ड शुद्धचैतन्य आत्मा ही है। सदेवेदं सर्वं जगदवगतं वाङ्मनसयोः सतोऽन्यन्नास्त्येव प्रकृतिपरसीम्नि स्थितवतः । पृथक् किं मृत्स्नायाः कलशघटकुम्भाद्यवगतं वदत्येष भ्रान्तस्त्वमहमिति
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मायामदिरया ॥ ३९२ ॥
मन और वाणीसे प्रतीत होनेवाला यह सारा जगत् सत्स्वरूप ही है; जो महापुरुष प्रकृति से परे आत्मस्वरूपमें स्थित है, उसकी दृष्टिमें सत्से पृथक् और कुछ भी नहीं है। मिट्टीसे पृथक् घट, कलश और कुम्भ आदि क्या हैं? मनुष्य मायामयी मदिरा उन्मत्त होकर ही 'मैं, तू' – ऐसी भेदबुद्धियुक्त वाणी बोलता है। क्रियासमभिहारेण यत्र नान्यदिति श्रुतिः ।
ब्रवीति द्वैतराहित्यं मिथ्याध्यासनिवृत्तये ॥ ३९३ ॥
कार्यरूप द्वैतका उपसंहार करते हुए 'जहाँ और कुछ नहीं देखता' ऐसी अद्वैतपरक श्रुति * मिथ्या अध्यासकी निवृत्तिके लिये बारम्बार द्वैतका अभाव बतलाती है।
आकाशवन्निर्मलनिर्विकल्प
निःसीमनिष्पन्दननिर्विकारम्
स्वयं परं ब्रह्म किमस्ति बोध्यम् ॥ ३९४॥
अन्तर्बहिः शून्यमनन्यमद्वयं
* 'यत्र नान्यत् पश्यति नान्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति स भूमा '
(छान्दो० ७ । २४ । १ )