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आत्म-चिन्तनका विधान
आत्म-चिन्तनका विधान
चित्तमूलो विकल्पोऽयं चित्ताभावे न कश्चन । अतश्चित्तं समाधेहि प्रत्यग्रूपे परात्मनि ॥ ४०८ ॥
यह विकल्प चित्त-मूलक हैं, चित्तका अभाव होनेपर इसका कहीं नामनिशान भी नहीं रहता। इसलिये चित्तको प्रत्यक् चैतन्य स्वरूप आत्मामें स्थिर करो ।
किमपि सततबोधं केवलानन्दरूपं निरुपममतिवेलं नित्यमुक्तं निरीहम् । निरवधि गगनाभं निष्कलं निर्विकल्पं
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हृदि कलयति विद्वान्ब्रह्म पूर्णं समाधौ ॥ ४०९ ॥
किसी नित्यबोध- स्वरूप, केवलानन्दरूप, उपमारहित, कालातीत, नित्यमुक्त, निश्चेष्ट, आकाशके समान निःसीम, कलारहित, निर्विकल्प पूर्ण ब्रह्मका विद्वान् समाधि-अवस्थामें अपने अन्तःकरणमें साक्षात् अनुभव करते हैं । प्रकृतिविकृतशून्यं भावनातीतभावं
मानसम्बन्धदूरम् ।
समरसमसमानं निगमवचनसिद्धं नित्यमस्मत्प्रसिद्धं
हृदि कलयति विद्वान्ब्रह्म पूर्णं समाधौ ॥ ४१० ॥ कारण और कार्यसे रहित, मानवी भावनासे अतीत, समरस, उपमारहित, प्रमाणोंकी पहुँचसे परे, वेद-वाक्योंसे सिद्ध, नित्य, अस्मत् (मैं) रूपसे स्थित पूर्ण ब्रह्मका विद्वान् समाधि अवस्थामें अपने अन्तःकरणमें अनुभव करते हैं। अजरममरमस्ताभासवस्तुस्वरूपं
स्तिमितसलिलराशिप्रख्यमाख्याविहीनम् ।
शमितगुणविकारं शाश्वतं शान्तमेकं
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हृदि कलयति विद्वान्ब्रह्म पूर्णं समाधौ ॥ ४११ ॥
अजर, अमर, आभासशून्य, वस्तुस्वरूप, निश्चल जल-राशिके समान, नाम-रूपसे रहित, गुणोंके विकारसे शून्य, नित्य, शान्तस्वरूप और अद्वितीय पूर्ण ब्रह्मका विद्वान् समाधि-अवस्थामें हृदयमें साक्षात् अनुभव करते हैं।