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20 / सर्वोदयी जैन तंत्र
के लिए समान एव आदरणीय उदारवाद, (5) कर्म-आधारित समाज या वर्ग व्यवस्था और ( 6 ) मनोवैज्ञानिक अध्यात्मवाद प्रमुख हैं। इसमें विश्वधर्म होने की क्षमता है क्योंकि (1) इसके अपने आगम ग्रन्थ हैं। (2) इसके प्रसारक आदरपात्र तीर्थंकरों के समान शलाकापुरुष है और (3) इसमे मानव तो क्या, सभी प्राणियों के हित के लिए व्यवहारिक या सर्वोदयी निर्देश हैं । इसके मूलभूत सिद्धान्त नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के आधारभूत हैं।
विश्व के अनेक विद्वानो को इस पर आश्चर्य है कि ऐसा सर्वतोभद्र एवं प्राचीन तत्र अनुसधान प्रवीण पश्चिम को इतने दिनों तक अज्ञात क्यो बना रहा ? यह तो सौ वर्ष में कार्यरत लगभग तीन दर्जन से अधिक पश्चिमी विद्वानो के अविरत प्रयत्नों का सुफल है जिनके कारण विश्व इस वैज्ञानिकतः प्रेरक एवं अचरजकारी तंत्र की ओर आकृष्ट हुआ है। विश्व के विचारक इस तत्र को नैतिक, सास्कृतिक, ऐतिहासिक, तत्व एव प्रमाण-विद्या तथा बुद्धिवाद के आधार पर सम्मानपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं।
समय अब बदल गया है। अब जैनतत्र का इतिहास भगवान ऋषभदेव से प्रारम्भ होता है। वे पूर्व- वैदिक एव सभवतः सिंधुघाटी सभ्यता के आचार्य थे । आधुनिक विद्वान अब यह मानने लगे है कि जैनतंत्र भारतमूलक आर्यपूर्व एव प्रागैतिहासिक तत्र है जो सभवतः वर्तमान मे भी दीर्घजीविता प्राप्त श्रमणधारा के अन्तर्गत ईसा पूर्व तीसरी चौथी सहस्राब्दि मे पुनः स्थापित हुआ होगा । इस धारा मे दिगम्बरत्व की पूजा, यौगिक आसन, चक्रीय अनादि-अनत समय की धारणा एव सर्वजीववाद के सिद्धान्त माने जाते रहे है । सिधुघाटी के उत्खनन से प्राप्त अनेक प्रकार के अवशेष उस युग मे इन धारणाओं के अस्तित्व के साक्ष्य देते है। इस प्रकार, जैनतत्र, ससार का एक प्राचीनतम, अनीश्वरवादी, अहिंसक, समग्रतावादी, और अनेकातवादी सिद्धान्तो का तंत्र है। वर्तमान युग मे केवल यहूदीतत्र उसके समकालीन बैठता है जिसका इतिहास प्राय. 3700 वर्ष ईसा पूर्व का माना जाता है। उत्तरकाल मे वाराणसी क्षेत्र के पार्श्वनाथ (877-777ई० पूर्व ) और मगध के महावीर (599-527 या 540-468 ई० पूर्व) ने इस तंत्र को अपने युगो मे इस प्रकार व्यवस्थित किया कि यह आज भी अत्यन्त प्रभावी एवं जीवित धर्मतत्र बना हुआ है।
इस तत्र का उद्देश्य व्यक्ति को ऐसे आध्यात्मिकतः उच्चतर स्तर पर ले जाना है जो सर्वोदयी समाज के निर्माण में सहायक हो । यह एक व्यक्ति