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धर्म का विकास और जैन तंत्र की विशेषतायें
आधुनिक विचारकों की दृष्टि में "धर्म" शब्द का अर्थ मानव का नैतिकत. समाजीकरण है। इसका दूसरा अर्थ व्यक्ति का इस रूप में विकास भी है जो सर्वोदय का प्रेरक हो, जो सभी को उच्चतम सुखमयता के लिए मार्ग प्रशस्त करे। वस्तुत. सच्चा धर्म तो मानव धर्म ही है जो "जियो और जीने दो" तथा "जियो और जीने में सहायक" हो। इस प्रकार, यद्यपि धर्म विश्वजनीन होता है, फिर भी, विश्व के इतिहास के अनेक युगों मे और अनेक क्षेत्रो मे अनेक धर्म-तन्त्रो का उदय हआ है जो व्यक्ति और समाज के सुखमय जीवन के निर्माण मे निर्देशक हये हैं। इनमें प्रत्येक ने स्वय को मानवता का सर्वोत्तम हितकारी माना है। लेकिन भाषा, सचार और अन्य बाधाओ के कारण ते विश्व भर में सुज्ञात न हो सके। अमरीकी लेखक एलबुड का यह विचार बहुसम्मत है कि प्रत्येक धर्म तंत्र विश्वधर्म या मौलिक मानव धर्म का केवल अंशतः परिवर्तित रूप ही है जिसके विभिन्न नाम हैं। ये सभी धर्म तत्र मानव की सुखमयता के सम्वर्धन के चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के अनेक प्रकार हैं। इस आधार पर, जब हम जैन तंत्र के विषय मे चर्चा करते है, तो हम पाते है कि यह मानवतावाद के विकास की ऐसी पद्धति है जिसमे अन्य धर्मों के समान विशिष्ट एवं निश्चित आदर्श एवं व्यवहारो का समुच्चय है। विद्वानो का विचार है कि जैन तंत्र सभी युग के स्वतंत्र चेता, बुद्धिवादी एवं तर्क-प्रवीण व्यक्तियो के लिए सर्वोत्तम आदर्श और व्यवहार प्रस्तुत करता है। यह न तो ईश्वरीय तत्र है और न ही यह दैवी तत्र है। इसमे न तो सृष्टिकर्ता ईश्वर को कोई स्थान है और न ही पोप के समान अधिकार प्राप्त सप्रभुता ही है। यह उत्तार-वादियो का तत्र है, यह अवतार तत्र नहीं जिनका चरित्र केवल अनुकरणीय की अपेक्षा श्रवणीय अधिक होता है। इस तत्र की विशेषताओ मे (1) भौतिक एवं मनोभावात्मक अहिंसावाद, (2) कर्मवाद, (3) बहुवास्तविकतावाद, (4) महिलाओ