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________________ उसे पता नहीं था कि ये सज्जन अल्वर्ट आइंस्टीन हैं। गणित के क्षेत्र में ऐसी महान प्रतिभा कभी नहीं हुई। और परिचालक ने कहा : क्या आपको अंक-ज्ञान नहीं है? अंकों के बारे में इन सज्जन से अधिक कभी किसी ने नहीं जाना, लेकिन क्या हो गया? जो लोग प्रतिभाशाली होते हैं, लगभग हमेशा ही वे भुलक्कड़ होते हैं। वे अपनी बुद्धिमता से इतने अधिक आसक्त और संचालित होते हैं कि बाहर के संसार की अनेक बातों में वे भलक्कड़ हो जाते हैं। मैंने एक महान मनोविश्लेषक, एक बेहद बुद्धिमान व्यक्ति के बारे में सुना है। वह अपने प्रयोगों में इतना अधिक खो गया कि दो या तीन दिन तक वह अपने घर ही नहीं गया। उसकी पत्नी चिंतित हई। तीसरे दिन वह और अधिक प्रतीक्षा न कर सकी तो उसने फोन किया और वह बोली, तम क्या कर रहे हो? वापस लौटो, मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हैं। और रात्रि-भोज तैयार है। वह बोला, ठीक है, मैं आ जाऊंगा। पता क्या है? वह पूरी तरह से भूला हुआ था-अपनी पत्नी, और घर और पता भी। बुद्धिमत्ता अनिवार्यत: जागरूकता नहीं है। जागरूकता अनिवार्य रूप से बुद्धिमत्ता है। एक व्यक्ति जो जागरूक है, बुद्धिमान होता है लेकिन एक व्यक्ति जो बुद्धिमान है, उसका जागरूक होना आवश्यक नहीं है; इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है। लेकिन दोनों बहुत पास हैं। बुद्धिमत्ता शरीर-मन का भाग है और जागरूकता परम का, पार का, पुरुष का अवयव है। आकाश पृथ्वी से मिलता है। वह बिंदु, वह क्षितिज जहां आकाश पृथ्वी से मिलता है, वही बिंदु है वहां से तादात्म को पूर्णत: भंग करना है-वहां से जहां बुद्धिमत्ता और जागरूकता मिलते हैं। दोनों बहुत समान हैं। बुद्धिमता शुद्धीकृत पदार्थ है, इतना परिशुद्ध कि तुम इसमें जा सकते हो और कोई सोच सकता है कि 'मैं जागरूक हो चुका हूं।' इसी कारण से बहुत से दर्शनशास्त्री अपना जीवन व्यर्थ गंवा देते हैं, वे सोचते हैं कि बुद्धिमत्ता ही उनकी जागरूकता है। धर्म जागरूकता की खोज है, दर्शनशास्त्र बुद्धिमत्ता की खोज है। 'जब पुरुष और सत्व के मध्य शुद्धता में साम्य होता है, तभी कैवल्य उपलब्ध हो जाता है।' लेकिन कैवल्य कैसे उपलब्ध हो? पहले तुम्हें सत्य, बुद्धिमत्ता की शुद्धि उपलब्ध करनी पड़ेगी। अत: और गहरे उतरो। वैखरी है मूर्तमान बुद्धिमता, मध्यमा है संसार के लिए नहीं बल्कि केवल तुम्हारे लिए मूर्तमान बुद्धिमत्ता, पश्यंती है बीज-रूप में बुद्धिमत्ता, और परा है जागरूकता। धीरे-धीरे स्वयं को विरक्त करो, विवेकपूर्वक देह को एक यंत्र, एक माध्यम, एक ठिकाने के रूप में देखना आरंभ करो, और तुम इसको जितना अधिक संभव हो सके उतना स्मरण करो। धीरे-धीरे यह स्मरण स्थायी हो
SR No.034099
Book TitlePatanjali Yoga Sutra Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho
PublisherUnknown
Publication Year
Total Pages471
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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