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जाता है। फिर मन पर कार्य आरंभ कर दो। स्मरण रखो कि तुम मन नहीं हो। यह स्मरण तुम्हें भिन्न होने में सहायता करेगा।
एक बार तुम शरीर-मन से अलग हो जाओ, तुम्हारा सत्य शुद्ध हो जाएगा। और तुम्हारा पुरुष सदैव शुद्ध था, बस पदार्थ के साथ तादात्म्य के कारण ही यह अशुद्ध प्रतीत हो रहा था। एक बार दोनों दर्पण शुद्ध हो जाएं, कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं होता। दोनों दर्पण आमने-सामने हैं, कुछ भी प्रतिबिंबित नहीं हो रहा है, वे रिक्त रहते हैं।
परम शून्यता की यह दशा मुक्ति है। मुक्ति संसार से नहीं है। यह तादात्म्य से मुक्ति है, तादात्म्य मत करो, किसी बात के साथ तादात्म्य मत करो। सदैव स्मरण रखो कि तुम साक्षी हो, साक्षी के बिंदु को मत खोओ, फिर एक दिन आंतरिक बोध हजारों सूर्यों के साथ उगने की भांति उदित हो जाता है।
यही है जिसको पतंजलि कैवल्य, मुक्ति कहते हैं।
इस शब्द कैवल्य को समझना पड़ेगा।
भारत में विभिन्न स्हस्यदर्शियों दवारा परम अवस्था के लिए भिन्न शब्दों का प्रयोग किया गया है। महावीर इसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष का ठीक से अनुवाद 'परममुक्ति' की भांति किया जा सकता है, कोई बंधन नहीं है, सारे बंधन गिर चुके हैं। बुद्ध ने 'निर्वाण' शब्द प्रयुक्त किया है,निर्वाण का अभिप्राय है : 'अहंकार का मिट जाना।' जैसे कि तुम प्रकाश बुझा दो और बस लौ विलीन हो जाए, बस इसी प्रकार से अहंकार का प्रकाश खो जाता है, तुम्हारा वजूद मिट जाता है। बूंद समुद्र में विलीन हो गई है या सागर बंद में समा गया है। यह विलय हो जाना, तिरोहित हो जाना है।
पतंजलि 'कैवल्य' का प्रयोग करते हैं, इस शब्द का अभिप्राय है 'परम एकांत।' यह न तो मोक्ष है और न निर्वाण। इसका अर्थ है : परम एकांत; तुम इस अवस्था में आ चुके हो जहां तुम्हारे लिए कोई और नहीं होता। किसी अन्य का अस्तित्व नहीं है, केवल तुम, सिर्फ तुम, बस तुम। वस्तुत: अपने आपको 'मैं' पुकारना संभव नहीं है, क्योंकि 'मैं' का प्रयोग 'तू के संदर्भ में होता है और 'तू मिट चुका है। तुम मोक्ष मुक्ति में हो इसे और अधिक कहते रहना संभव नहीं है, क्योंकि जब सारे बंधन खो गए हैं तो मुक्ति का क्या अर्थ रह गया? यदि कारागृह संभव है तो मुक्ति भी संभव है। तुम मुक्त हो क्योंकि बस पड़ोस में ही कारागृह का अस्तित्व है। तुम कारागृह के भीतर नहीं हो, अन्य लोग हैं जो कारागृह के भीतर हैं, लेकिन सिद्धांतत: संभवत: किसी भी दिन तुमको भी कारागृह में डाला जा सकता है। यही कारण है कि तुम मुक्त हो, लेकिन यदि कारागृह पूरी तरह से, अत्यंतिक रूप से, मिट चुका हो, तो स्वयं को मुक्त कहने का क्या अर्थ रहा।
कैवल्यम्, मात्र एकांत। लेकिन याद रखो, इस एकांत का तुम्हारे अकेलेपन से कुछ भी लेना-देना नहीं है। अकेलेपन में दूसरे का अस्तित्व, उसका अनुभव होता है, उसकी अनुपस्थिति का अनुभव किया