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निष्ठावान और ईमानदार और प्रमाणिक और सच्चे हो तब प्रत्येक पथ लक्ष्य तक ले जाता है। श्रीमद्भगवतगीता में कृष्ण ने कहा है. लोग चाहे जिस रास्ते पर यात्रा करें वह मेरा पथ है। इससे अंतर नहीं पड़ता कि वे किस रास्ते पर कहा चल रहे हैं, वह मुझ तक लाता है।
तो इसे सरलतापूर्वक एक बात में संक्षिप्त किया जा सकता है कि प्रमाणिकता ही पथ है। इससे अंतर नहीं पड़ता कि तुम कौन से पथ पर चलते हो, यदि तुम प्रमाणिक हो तो प्रत्येक पथ उसी तक ले जाता है। और इससे विपरीत बात भी सत्य है, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुम किस पथ पर चलते हो, यदि तुम प्रमाणिक नहीं हो तो तुम कहीं नहीं पहुंचोगे। तुम्हारी प्रमाणिकता ही तुम्हें घर वापस लाती है और कोई नहीं। सारे पथ दूसरे स्थान पर हैं। आधारभूत बात है. प्रमाणिक होना, सच्चा होना।
एक सूफी कहानी है:
किसी व्यक्ति ने सुना कि यदि वह सूर्योदय के समय मरुस्थल में एक निश्चित स्थान पर दूर स्थित पर्वत की ओर मुंह करके खड़ा हो जाए तो उसकी छाया से किसी गढ़े हुए बड़े खजाने का पता लग जाएगा। उस व्यक्ति ने दिन की पहली किरण फूटने से पूर्व ही अपना स्थान छोड़ दिया और वहां पहुंच कर सूर्योदय के समय निर्धारित स्थान पर खड़ा हो गया। रेत की सतह पर उसकी लंबी और पतली छाया पड़ रही थी। कितना किस्मत वाला हूं मैं, उसने सोचा और स्वयं को विशाल खजाने के मालिक की भांति अपनी कल्पना में देखा। उसने खजाने के लिए खुदाई आरंभ कर दी। वह अपने कार्य में इतना रम गया कि उसको ध्यान ही न रहा कि सूर्य आकाश में ऊपर उठ रहा है और उसकी छाया छोटी होती जा रही है, और तभी उसने इस बात को देखा। अब यह अपने पुराने आकार से लगभग आधी हो गई थी। उसे चिंता हुई और वह पुन: नये स्थान पर खोदने लगा। कुछ घंटों बाद, दोपहर में वह व्यक्ति पुन: वहीं खड़ा हुआ। अब उसकी कोई छाया नहीं थी। वह बहुत चिंतातुर हो गया। उसने रोना और चिल्लाना शुरू कर दिया-उसका सारा श्रम व्यर्थ गया था। अब कहां है वह
स्थान?
तभी एक सूफी सदगुरु वहां से निकला, जो उस पर हंसने लगा और बोला, छाया अब बिलकुल ठीक खजाने की ओर संकेत कर रही है। वह तुम्हारे भीतर है।
सारे रास्ते उस तक पहुंचा सकते हैं क्योंकि एक अर्थ में वह मिला ही हुआ है। वह तुम्हारे भीतर है। तुम कुछ नया नहीं खोज रहे हो। तुम कुछ ऐसा खोज रहे हो जिसे तम भला चके हो, और तम वास्तव में इसे कैसे भूल सकते हो? यही कारण है हम आनंद की खोज किए चले जाते हैं क्योंकि हम इसे भला नहीं सकते। यह हमारे भीतर प्रतिध्वनित होता रहता है। आनंद की खोज, हर्ष की खोज, सुख की खोज और कुछ नहीं बल्कि परमात्मा की खोज है। तुमने संभवत: 'परमात्मा' शब्द प्रयोग न किया