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पूरी किफायत के साथ अपने चित्त को थाह दी है। १४ अक्टूबर १९७५ के खत में उसने लिखा है-“यदि यह किताब निर्वाण-महोत्सव के पटाक्षेप के बाद भी निकले तो क्या हरकत ? अपने तो समारोहवाले हैं नही। समारोही कृति को चुनौती देनेवाली पुस्तक समारोह से बधे भी क्यो?" उनके हर खत की हर पक्ति एक दस्तावेज की तरह से सुरक्षित है। इनका सबसे बग उपयोग यह हुआ है कि हम यह निष्कर्ष ले सके हैं कि कटारियाजी अपने लेखन के प्रति निश्छल और असदिग्ध हैं, और इसी स्पष्टता के कारण वे सारी बात को सुबोध ढग से कह पाये हैं। तभ्यो के प्रति उनकी निष्कपट और ईमानदार वर्तनी प्राय सभी लेखो पर प्रतिच्छायित है।
'महावीर जीवन मे' के सारे लेख पूरे एक वर्ष के समय-पटल पर फैले हुए हैं । उपयोगी यह है कि ये मारे निर्वाणोत्सव के दौरान लिखे गये हैं। इसलिए लेखक देखता गया है कि कहाँ क्या हो रहा है, और शास्त्रो मे से जैनधर्म के चित्त की जो रपट उसे मिली है उससे इसका मिलान करता गया है। उसने समीक्षा की है कि कही ऐसा तो नहीं है कि आगम के आखर कुछ हैं और चरित्र कुछ है ? लेखक ने बे-लिहाज अपने चित्तकी प्रतिक्रिया को सामने रक्खा है। उसके सारे लेख देश की प्रमुख पत्रपत्रिकाओ मे विशेष लेखो की तरह प्रकाशित हुए हैं। ऐसा नहीं है कि ये केवल हिन्दी पाठको के पास ही पहुंचे है वरन् इनके गुजराती, मराठी, कन्नड आदि भारतीय भाषाओ में अनुवाद भी हुए हैं और इन्हें सभी श्रेणियो के पाठको ने पढा-सराहा है । मैं समझता हूँ लेखो का भक्तामर, छहढाला, मोक्षशास्त्र की तरह पढा जाना पहली ही बार हुआ है। यह एक अच्छा लक्षण है। लोग चाहते हैं कि उन्हें कोई आईना दिखाये और वे आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया में आये। किन्तु हमारा प्रबुद्ध लेखक सामाजिक आचरण पर अपनी राय देने की चिसवृत्ति मे ही नहीं है। हो सकता है वह भयभीत हो । या उसके कोई न्यस्त स्वार्थ हो, किन्तु कटारिया अपनी जगह दुरुस्त है इस तथ्य से इन्कार करना कठिन काम है। समाज को एक व्यापक कृतज्ञता का अनुभव करना चाहिये कि कटारिया ने उसकी प्रज्ञा को