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लेखक ने महावीर को केवल जैनों की पूजी न मानकर भारतीय इतिहास और संस्कृति की प्रज्ञा-परम्परा के साथ सबसे पहली बार न्याय किया है। उसने अपने युग-परिप्रेक्ष्य मे वर्द्धमान को जाना-पहचाना है । व्यक्ति मे, जश्न - जुलूसों में, घर में, आंगन में, मडी मे, हाट में, व्यवसाय में, धन्धे में और जीवन के प्राय सभी प्रखण्डो में उसने महावीर की तलाश की है। उसने पता लगाया है किसी को न बख्शनेवाली अपनी नजर से कि महावीर को उसके अनुयायियो ने, और दूर से देख भर लेनेवाली प्रज्ञा ने किस अन्दाज से उसे ग्रहण किया है । लेखक का धर्म-सबन्धी विश्लेषण भी सिर्फ जैनो तक ही सीमित नहीं है, उसने प्रयत्न किया है कि वह इन लेखो के माध्यम से भारतीय धर्म, संस्कृति और दर्शन की रचनाधर्मी पगडडियो को भी अछूता न रखे । अनेकान्तवाद को उसने अहिंसा की प्रयोगशाला का सबसे अधिक सफल और शक्तिशाली प्रयोग माना है । उसका विश्वास है कि इसके माध्यम से बहुत पहले ही दुनिया का बेहद भला हुआ होता, यदि जैनधर्म की चिगत्ती उस पर नही होती । उसका यह सोचना बिल्कुल सही है कि आखिर चिगत्तियाँ किसी वस्तु के मूल व्यक्तित्व को कम-ज्यादह कैसे कर सकती हैं ? चिगत्तियाँ शुरू मे शूरवीर किन्तु अन्त मे लाचार ही होती हैं, लेबिल कटारिया के मत मे मूल मे कोई तबदीली नही कर सकते । वस्तुत कटारिया का चिन्तन इतना प्रखर, स्वस्थ और रचनाधर्मी है कि उससे कोई सहजमति शायद ही बच सके ।
सयोगवश मैं इन लेखो के साथ कलम के साथ स्याही जिस तरह जुडी हुई है, वैसे ही सबद्ध हूँ । यदि मेरे इस जुड़ने की मुझे कोई सफाई ही देनी पड़े तो मैं कहूँगा कि जल से लहर और वस्तु से छाया जिस रिश्ते मे
हैं, मैं इनकी सृजन-प्रक्रिया से जुडा हुआ हूँ । ये सारे लेख याता 'तीर्थंकर' के लिए लिखे गए हैं या फिर 'वोर निर्वाण विचार - सेवा' के निमित्त । इन दोनो से मेरा रिश्ता है । मुझे स्मरण है हर लेख के साथ लेखक ने मुझे एक छोटा खत लिखा है । इन लघुपत्रो मे उसने शब्दो की