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गिरि लधे' के बजाय इस बिन्दु पर टिका कि मनुष्य पंगु क्यो है ? किन बातो ने उसे पगु बना दिया है ? वह अपने आप में स्थिर क्यो नहीं है। महावीर को लगा कि मनुष्य हारता है तो खुद से ही हारता है। उसकी तृष्णा, उसका क्रोध, उसका बैर ही उसे पछाड रहा है। वह अपनी ही हिंसा-ज्वाला में भस्म हो रहा है। वह समझता है और कहता है कि 'माया महा ठगिनि हम जानी' और माया से जूझने के बजाय उसे अगीकार कर रहा है। ऐसे अकर्मण्य मनुष्य को प्रभु अपना सहारा कैसे देगे? मनुष्य बाहर तो बहुत पराक्रमी बना है। नभ-थल-जल नापने मे लगा है। उसके एक-एक सकेत पर महायुद्ध भडक सकते हैं। कितने ठाठ से उसकी प्रभुता, राज्य, कारोबार, सम्प्रदाय, उद्योग-ससार, व्यापार-व्यवसाय, धर्म-सस्थान आदि-आदि चल रहे हैं, फिर भी वह पग है। अपने-आप से ही मात खा जाता है। इसलिए महावीर मनुष्य के हाथ मे ऐसा पराक्रम थमाना चाहते थे जो उसे अपनी मुक्ति का बोध दे और शक्ति दे।
पर क्या महावीर की यह सब विरासत हम छु सके हैं। अपने मे उतार पाये हैं, उनकी बिछायी पटरियो पर चल पाये हैं ? न हम इतने पराक्रमी, परमवीर, क्रान्तिकारी आत्मदर्शी को छोड सके हैं और न ग्रहण कर सके है। तो हमने क्या किया कि अपना-अपना महावीर उठाया और अपनी ही बिछायी पटरियो पर दौड चले है। रथ में महावोर है और पहिये पर हम घूम रहे हैं खूब तृष्णा बाट रहे हैं, परिग्रह सजा रहे हैं, स्वार्थ की चरड-चं मचा रहे हैं और आत्मबोध तथा समाजबोध को कुचल रहे हैं। क्या वह समय नही आ गया है कि हम अपनी बिछायी पटरियो से उतर जाएँ और महावीर की विराट् विरासत को लेकर नये सिरे से चलना शुरू करे । प्रखण्ड, सहज और विवेही होकर महावीर का जीवन जीयें ?
क्या हम इसी वाटरमार्क (जल चिह्न) पर महावीर की विरासत के उत्तराधिकारी माने जाते रहेंगे कि 'हम रात में नही खाते, जैन हैं, या हमारी रूह मे यह बाटरमार्क भी उतरेगा कि महावीर का बन्दा है यह'झूठ नही बोलेगा, क्रोध-कपट नही करेगा और माया नही जोडेगा।'
०० जीवन में?