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ससार, यश-संसार और धन ससार से मनुष्य को समाधान नही मिलता । सब कुछ पाकर भी वह बदी है। मनुष्य बाहर तो बहुत जूझ रहा है । रातदिन इस खटपट में है कि वह पा ले, और और पा ले । पाये बिना उसे चैन ही नही है । अब यह पाने की प्रक्रिया भी विचित्र है । बाहर प्राप्त करता जाता है, भीतर से बन्द होता जाता है । कपाट-पर- कपाट लगते चले जाते है । महावीर कहता है कि भीतर झाककर तो देखो कि तुम हो कहा बाहर के विस्तार ने मनुष्य की आत्मा को ही कैद कर लिया है । मनुष्य का कण्ट्रोल रूम - नियंत्रण कक्ष घिर गया है। उसके जीवन की तर्ज अहिंसा है, पर हिंसाएँ कास की तरह उसके चारों ओर उग रही हैं । वह सत्यप्रिय है, पर हर सास के साथ उसे झूठ पीना पड रहा है, वह करुणा-मूर्ति है पर अन्याय सह रहा है और अन्याय कर रहा है, क्यो ? नियन्त्रण कक्ष का मालिक मनुष्य अब अपने ही नियन्त्रण मे नही है । वह बाहर बेकाब होकर दौड़ रहा है । भीतर आत्मा बन्द है और बाहर उसने विश्व - विजय का फतवा पा लिया है। इस विश्व-विजयी मनुष्य के हाथ मे आत्मजयी महावीर 'विवेक' थमाना चाहते है । विवेकहीन होकर उसने सब कुछ पाया - चाद तोड लाया और सितारे तोडने की धुन में है—उस मनुष्य को महावीर आत्मबोध देना चाहते है । वे कहते हैं "धर्म कोई बाह्य पदार्थ नहीं है । श्रात्मा की निर्मल परिणति का नाम ही धर्म है।" पर इसी आत्मधर्म को 'मनुष्य ने छोड दिया है । वह मुक्ति की आकाक्षा रखता
है । मुक्ति की साधना जिस-जिसने की वे सब उसके आराध्य देव हैं । ढाई हजार वर्ष बाद भी वह बुद्ध का है, महावीर का है। ईसा की उन्नीस शताब्दिया वह देख चुका है, लेकिन मनुष्य के मुक्ति - पराक्रम मे भरोसा रखकर भी वह इस मार्ग पर चल नहीं पाया, यह एक कटु सत्य है ।
आत्मबोध - एक प्रश्नचिन्ह
चल भले ही न पाया हो, परन्तु मनुष्य की मुक्ति का पराक्रम उसकी
: महावीर
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