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मुक्त हो गया। उसकी पुण्य तिथि हमारे लिए 'निर्वाण महोत्सव' का दिन है— मुक्ति पर्व है ।
हम इसमे मनुष्य का पराक्रम देख रहे हैं, महावीरत्व देख रहे हैं । महावीर को इसलिए नहीं पूज रहे कि उसने मुक्ति प्राप्त की, बल्कि वह इसलिए हमारा आराध्य है कि उसने मनुष्य को मुक्ति का मार्ग दिखलाया । उसे सही जीवन जीने का बोध दिया, हौसला दिया । महावीर ने खोज की, देखा, परखा और जिन बन्धनो में मनुष्य खुद के ही कारण जकडा हुआ है उन्हें तोडा और तोडते चला गया । बन्धन उससे छूटते गये । और बात यहीं तक सीमित होती तो वे हमारे लिए केवल एक 'तीर्थंकर' होते- हम उन्हें 'युग प्रवर्तक' के रूप में सभवत नही पहिचान पाते । लेकिन महावीर ने अपना मुक्ति-बोध बाटा । धर्म-जाति वर्ग की सीमाये लाघकर मनुष्य मात्र के लिए उन्होने मुक्ति के द्वार खुले कर दिये। इसलिए वे केवल 'जैनो' के महावीर नही हैं, सारे विश्व के महावीर हैं। समूची मनुष्य जाति के वर्द्धमान ( विकासशील ) है ।
मुक्ति किससे ?
इस आत्मजयी से आप पूछ सकते हैं कि मुक्ति किससे ? मनुष्य ने तो अपनी बहुत सी बाधाएँ दूर कर ली हैं। बहुत से झझट पार कर लिये हैंव्याधिया उसके नियन्त्रण में हैं, वस्तुएँ उसके लिए सुलभ हैं, उसके मस्तिष्क का इतना विस्तार हुआ है कि वह अपने हर कष्ट का इलाज ढूंढ सकता है, वह निर्माता है, भोक्ता है । जो थोडी गडबडी वितरण की, व्यवस्था की, कगाली की, गरीबी की और अमीरी के तफावत की है, वह भी मिट जाएगी - मनुष्य के ध्यान से बाहर यह बात है नही। फिर मुक्ति किससे ? महावीर कहता है-मुक्ति अपने-प्राप से अपनी तृष्णा से, अपने वैर से, अपने क्रोध से, अपने मोह से, अपने विलास से, अपने अहकार से, अपने प्रमाद से । इनसे मुक्त हुए बिना बाहर के अधिकार-ससार, वस्तुजीवन में ?
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