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किसी की हत्या नही करता, न शिकार खेलता हूँ, न कीट-पतंगो को मारता हूँ- मेरे लिए मास-मछली - अडा आदि अखाद्य हैं तो क्या मैंने अहिंसा को वर लिया ? अब ये ऐसे प्रश्न हैं जिनकी तह में आप जाएँ तो महावीर के नजदीक पहुँचेंगे । महावीर पशु बलि से घबडाकर, युद्ध मे हो रहे विनाश को देखकर, राज्य-धन-यश की लोलुपता के कारण मनुष्य के द्वारा मनुष्य का हनन देखकर ससार से भागा और गहरा गोता लगा गया । अपने आप में डूब गया । अपने हृदय की असल गहराई में उतर गया और जो रत्न वह खोजकर लाया वे अमूल्य है, अहिंसा
समझने में सहायक है, अहिंसा को जीने की कीमिया हैं ।
मुझे एक धर्मालु मिले, जो जीवदया के हिमायती हैं- कबूतर के लिए जुआर और चीटी की बाबियो मे आटा डालने का उन्हे अभ्यास हो गया है । प्राणिमात्र के लिए बहुत दयावान हैं। खान-पान की भ्रष्टता से
बहुत चिन्तित हैं । उनके लिये अहिंसा याने शुद्ध शाकाहार-खाद्यअखाद्य का विवेक और जीवदया । मैं उन्हें समझाता रहता हूँ कि इतना तो आज के इस विज्ञान युग मे परिस्थिति-विज्ञान ( इकॉलॉजी) भी कर देगा । एक पूर्ण मासाहारी के लिए चार एकड जमीन चाहिए, जबकि एक पूर्ण शाकाहारी के लिए एक एकड जमीन ही पर्याप्त है । मनुष्य को अपनी जनसख्या का संतुलन बैठाना हो तो अपने-आप उसे मासाहार छोडना होगा । आबादी के मान से इतनी जमीन है नही कि मनुष्य मासाहार पर टिका रहे। शायद बहुत ही निकट भविष्य में मनुष्य को अपनी सीमा पहचानकर मासाहार छोड ही देना होगा तब क्या हम सम्पूर्ण मानव जाति को अहिंसा-धर्मी मानेगे ? लेकिन इतना सरल मार्ग अहिंसा का है नही ।
मूल बात दृष्टि की
इसीलिए महावीर बाहर की आचार सहिता मे नही गया । भीतर
महावीर
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