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अहिंसा : आत्म-बोध और समाज-बोध
अहिंसा कोई नारा नही है, न ही यह कोई धर्मान्धता ( डॉग्मा ) है । न अहिंसा परिभाषा की वस्तु है, न वह पथ है । उसे न हम वाद कह सकते हैं, न हम उसे महज विचार मान सकते हैं। अहिंसा तो एक जीवन है, मनुष्य के जीवन की एक तर्ज, जो केवल जीकर पहचानी जा सकती है, समझी जा सकती है ।
प्रकाश की आप क्या व्याख्या करेगे ? वर्णन से अधिक वह अनुभव की वस्तु है -- उसी तरह अहिंसा मनुष्य के जीवन की एक विशेषता है । उसे जीता है तो वह मनुष्य रहता है, नही तो अहिंसा को खोकर समूची मानवता ही डूब सकती है ।
अब क्या आप महज खाने-पीने की परिधि के साथ अहिंसा को जोड़ेंगे ? क्या आप रहन-सहन के दायरे से इसे बाधेंगे ? मैं मास नही खाता तो क्या ages हो गया, या निरा शाकाहारी हूँ तो अहिंसक हो गया ? मैं