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से अहिंसा उगेगी तो बाहर का आचार-व्यवहार, रहन-सहन अहिंसा के अनुकल बनने ही वाला है। उसकी चिन्ता करनी नही पडेगी। महावीर ने मनुष्य को भीतर से पकडा। उसने जान लिया कि मनुष्य हारता है तो अपनी ही तृष्णा से हारता है, भस्म होता है तो अपने ही क्रोध से भस्म होता है, उसे उसका ही द्वेष परास्त करता है, अपनी ही वैर-भावना में वह उलझता है। बाहर से तो कुछ है नही । वस्तुओ से घिरा मनुष्य भी अलिप्त रह सकता है, वस्तु को नही छूकर भी वह उसके मोह-जाल मे फंस सकता है । महावीर की यह अनुभूति बडे मार्के की है। उन्होने कहा है
"अनाचारी वृत्ति का मनुष्य भले ही मृगचर्म पहने, नग्न रहे, जटा बढाये, सघटिका ओढ़े, अथवा सिर मुडा ले तो भी वह सदाचारी नही बन सकता।"
मल बात वृत्ति की है, दृष्टि की है। हम भीतर से अपने को देखे और उसकी सापेक्षा में इस जगत् को समझें। महावीर हमे बाह्य जगत् से खीचकर एकदम भीतर ले गये-यह है तुम्हारा नियत्रण-कक्ष । क्रोध को अक्रोध से जीतो, वैर को अवैर से पछाडो, घृणा को प्रेम से पिघलाओ, वस्तुओ का मोह सयम के हवाले करो। तृष्णा का मुकाबिला समता करेगी, लोभ पर अकुश साधना का रहेगा और इस तरह आत्मा अपने ही तेज-पुज मे अपने को परखेगी, जाचेगी, सम्यक मार्ग अपनायेगी।
इसी पराक्रम ने महावीर को 'महावीर' की सज्ञा दी। अपने गले का मक्ताहार किसी को देकर झझट से मुक्त होना सरल है, लेकिन आपके गले में पडी मोतियो की माला से अपना मन छुडाना सरल काम नही है। इस कठिन मार्ग की साधना महावीर ने की और कामयाबी पायी।।
अहिंसा के मार्ग में एक और पराक्रम महावीर ने किया। उन्होंने अपनी खोज मे पाया कि अहिंसा की आधार-शिला तो अपरिग्रह है
जीवन मे?