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भाषा से प्रभावित हो जाने के कारण भी हो सकता है और अशोक के पूर्वी शिलालेखो मे और 'पालि' मे कोई भेद नही, तो उन्हे ‘पालि' को बुद्ध-वचन मानने मे उतनी आपत्ति न होगी।
और हमारा तो कहना केवल इतना है कि जो भापाएँ इस समय उपलब्ध है, उनमे पालि-त्रिपिटक की भापा से वढ कर हमे बुद्ध के समीप ले जाने वाली दूसरी भापा नही, जो ज्ञान त्रिपिटक मे उपलब्ध है उस ज्ञान से बढकर हमे बुद्ध-ज्ञान के समीप ले जाने वाला दूसरा ज्ञान नही। जहाँ तक वुद्ध के व्यक्तित्व का सम्बन्ध है, उसका सव से बडा परिचायक । त्रिपिटक ही है।
प्रश्न हो सकता है कि त्रिपिटक तो बुद्ध के ५०० वर्ष बाद लिपिबद्ध किया गया। इतने अर्से मे उसमे कुछ मिलावट की काफी सम्भावना है। हो सकता है, लेकिन फिर त्रिपिटक पर किस दूसरे साहित्य को तरजीह दे। यदि यह मान भी लिया जाये कि बुद्ध की अपनी शिक्षाओ के साथ कही कही त्रिपिटक मे कुछ ऐसी दूसरी शिक्षाये भी दृप्टि-गोचर होती है जिनकी सगति बुद्ध की शिक्षाओ से आसानी से नहीं मिलाई जा सकती, तो भी हम बुद्ध की शिक्षाओ के लिए त्रिपिटक को छोड कर और किस दूसरे साहित्य की शरण ले? ___ भापा और भाव दोनो की दृष्टि से पालि वाडमय हमे बुद्ध के समीपतम ले जाता है। जितना समीप यह ले जाता है, उतना समीप कोई दूसरा साहित्य नही, और जहाँ यह नही ले जाता वहाँ किसी दूसरे साहित्य की गति नहीं।
पालि-वाडमय के उस हिस्से का जिसे हमने ऊपर त्रिपिटक या वुद्धवचन' कहा है विस्तार इस प्रकार है
१ सिहल, स्याम, बर्मा-इन तीनो देशो के अक्षरो में त्रिपिटक उपलब्ध है। सिहल की अपेक्षा स्याम और बर्मा में सम्पूर्ण साहित्य आसानी