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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स.
भावार्थ।
हे गुरो ! मेरा शास्त्र से और शास्त्र-जन्य ज्ञान से क्या प्रयोजन है ? और आत्म-विश्रान्ति से भी मेरा क्या प्रयोजन है ? सबके गलित होने से मेरे को न विषय वासना है, निर्वासना है, न तृप्ति है, न तृष्णा है, न अद्वन्द्व है, किन्तु मैं शान्त एक रस हूँ ॥२॥
मूलम् । क्व विद्या क्व च वाऽविद्या क्वाहं क्वेदं मम क्व वा । क्व बन्धः क्वचवा मोक्षः स्वरूपस्य क्व रूपिता ॥३॥
पदच्छेदः। क्व, विद्या, क्व, च, वा, अविद्या, क्व, अहम, क्व, इदम, मम, क्व, वा, क्व, बन्धः, क्व, च, वा, मोक्षः, स्वरूपस्य, क्व, रूपिता ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः।
शब्दार्थ । स्वरूपस्य मेरे रूप को
क्व-कहाँ क्व-कहाँ
इदम् यह बाह्य वस्तु है ? रूपिता-रूपिता है ?
वा-अथवा क्व-कहाँ
क्व-कहाँ विद्या विद्या है ?
मम मेरा है ? च-और
वा अथवा क्व-कहाँ
क्व-कहाँ अविद्या अविद्या है ?
बन्धःम्बन्ध है। क्व-कहाँ
च-और अहम् अहंकार है ?
क्व कहाँ वा और
मोक्षः मोक्ष है ।।