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________________ बीसवाँ प्रकरण । ३८५ शिष्य कहता है कि संपूर्ण उपाधियों से शून्य जो मेरा स्वरूप है, उस निरञ्जन मेरे स्वरूप में पांच भूत कहाँ हैं ? और सूक्ष्म भूतों का कार्य इन्द्रिय कहाँ हैं, और मन कहाँ हैं ? प्रश्न-क्या तुम शून्य हो ? उत्तर-शून्य भी मेरे में नहीं है, क्योंकि सद्प आत्मा में शून्य भी तीनों कालों में नहीं रह सकता है । शून्य कल्पित है । बिना अधिष्ठान के शून्य के कल्पना भी नहीं हो सकती है। इन संपूर्ण भूत इन्द्रियादिक कल्पित पदार्थों का मैं साक्षी हूँ।। १ ।। मूलम् । क्व शास्त्रं क्वात्मविज्ञानं क्व वा निवषयं मनः । क्व तृप्ति क्व वितृष्णत्वं गतद्वन्द्वस्य मे सदा ॥२॥ पदच्छेदः । क्व, शास्त्रम्, क्व, आत्मविज्ञान, क्व, वा, निविषयम्, मनः, क्व, तृप्तिः , क्व, वितृष्णत्वम्, गतद्वन्द्वस्य, मे सदा ।। अन्वयः। शब्दार्थ। अन्वयः। আল্লাহ। सदा-सदा निविषयम्=विषय-रहित गतद्वन्द्वस्य द्वन्द्व-रहित मनः=मन है ? मेमुझको क्व कहाँ शास्त्रम्-शास्त्र है ? तृप्तिः तृप्ति है ? क्व कहाँ वा और आत्मविज्ञानम् =आत्म-ज्ञान है ? क्व कहाँ क्व-कहाँ | वितृष्णत्वम् =तृष्णा का अभाव है ।। क्व=कहाँ
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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