________________
अठारहवाँ प्रकरण ।
३०१ सः-वह
| श्रीमान् शोभायमान सुखी-सुखी
| शोभते शोभा को प्राप्त होता है ।
भावार्थ। मैं इस कार्य को करूँगा ऐसा न कहता हुआ जीवन्मुक्त प्रारब्धवश से कार्य को करता है, पर बालक की तरह वह मूर्ख नहीं हो जाता है। सांसारिक व्यवहार को करता हआ भी वह प्रसन्न शान्तचित्तवाला शोभायमान प्रतीत होता है ॥२६॥
मूलम् । नानाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः । न कल्पते न जानाति न शृणोति न पश्यति ॥ २७ ॥
पदच्छेदः । नानाविचारसुश्रान्तः, धीरः, विश्रान्तिम्, आगतः, न, कल्पते, न, जानाति, न, शृणोति, न, पश्यति ।।
शब्दार्थ । अन्वयः। यतः जिस कारण
अतएव-इसी कारण नानाविचार- द्वैत के विचार से
सः वह सुश्रान्तः । निवृत्त हुआ न कल्पते-न कल्पना करता है धीरः-ज्ञानी
न जानाति-न जानता है विश्रान्तिम्-शान्ति की
न शृणोति-न सुनता है आगतः प्राप्त हुआ है _ न पश्यति=न देखता है ।।
भावार्थ ।
अन्वयः।
शब्दार्थ ।
हे शिष्य ! नानाप्रकार के विचारों से रहित ज्ञानी अन्तरात्मा