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________________ ३०२ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० में ही शान्ति को प्राप्त रहता है। वह संकल्पादिक मन के व्यापारों को नहीं करता है और न बुद्धि के व्यापारों को करता है, और न वह इन्द्रियों के व्यापारों को करता है, क्योंकि उसमें कर्त्तत्वादिकों का अभिमान नहीं है ।। २७ ।। मूलम् । असमाधेरविक्षेपान्न मुमुक्षुर्न चेतरः। निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रीवास्तेमहाशयः ॥ २८ ॥ पदच्छेदः । असमाधेः, अविक्षेपात्, न, मुमुक्षुः, न, च, इतरः, निश्चित्य, कल्पितम्, पश्यन्, ब्रह्म, एव, आस्ते, महाशयः ।। अन्वयः। शब्दार्थ । । अन्वयः । शब्दार्थ । महाशयः ज्ञानी निश्चित्य-निश्चय करके असमाधेः समाधि रहित होने से इदम् सर्वम्-इस सब जगत् को मुमुक्षः न=मुमुक्ष नहीं है कल्पितम्-कल्पित च और पश्यत्-समझता हुआ अविक्षेपात द्वैत भ्रम के अभाव से ब्रह्म एवम्ब्रह्मवत् इतरः नम्बद्ध नहीं है आस्ते-स्थित रहता है । परन्तु-परन्तु भावार्थ । ज्ञानी मुमुक्षु नहीं होता है, क्योंकि विक्षेप की निवृत्ति के लिये मुमुक्षु समाधि को करता है। ज्ञानी में विक्षेप है नहीं, इसी लिये वह समाधि को नहीं करता है। उसमें बन्ध भी नहीं है, क्योंकि
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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