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________________ अष्टावक्र गीता भा० टी० स० मूलम् । कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः । कुतः प्रशमपीयूषधारासारमृते सुखम् ॥ ३ ॥ २७६ पदच्छेदः । कर्तव्यदुःख मार्तण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः कुतः, प्रशमपीयूषधारासारम्, ऋते, सुखम् ॥ अन्वयः । कर्तव्यदुःख मार्तण्डज्वाला- 13 दग्धान्त रात्मनः शब्दार्थ | कर्म-जन्य दुःखरूपीसूर्य के ज्वाला से भस्म हुआ है। मन जिसका, ऐसे - पुरुष को " शब्दार्थ | अन्वयः । प्रशमपीयूष - _ शान्ति-रूपी अमृत धारासारम् (की धारा की वृष्टि ऋते =विना सुखम् = सुख कुतः कहाँ भावार्थ | कर्तव्य-रूपी जितने कर्म हैं, उनसे जन्य जो दुःख हैं, वही एक सूर्य की तप्तरूपा अग्नि है । उस अग्नि करके जिसका मन दग्ध हो रहा है, उसको शान्ति रूपी अमृत- जल के बिना कदापि सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है ।। ३ ।। मूलम् । भवोऽयं भावनामात्रो न किञ्चित्परमार्थतः । नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम् ॥ ४ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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