________________
अठारहवाँ प्रकरण ।
२७७
पदच्छेदः । भवः, अयम्, भावनामात्र:, न, किञ्चित्, परमार्थतः, न, अस्ति, अभवः, स्वभावानाम्, भावाभावविभाविनाम् ।। अन्वयः। ___ शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। अयम्-यह
हिक्योंकि भवः संसार
भावाभाववि- (भाव-रूप और [भावना-मात्र है
भाविनाम्-२ अभाव-रूप पदार्थों भावनामात्रः २ अर्थात् संकल्प
( में स्थित हुए । मात्र है। स्वभावानाम्-स्वभावों का परमार्थतः परमार्थ से
अभावः अभाव किञ्चित्-कुछ
न अस्ति नहीं होता है । न-नहीं है
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! यह जगत् संकल्प:मात्र है । परमार्थ-दृष्टि से तो आत्मा से अतिरिक्त कोई भी वस्तु भाव-रूप अर्थात् सत्य-रूप नहीं है, आत्मा ही सत्य-रूप है, और संपूर्ण प्रपंच अभाव-रूप है अर्थात् असत्य-रूप है।
प्रश्न-अभाव-रूप प्रपंच भी कालादिकों के वश से भाव स्वभाववाला हो जावेगा ?
उत्तर-भाव-रूप और अभाव-रूप में स्थित स्वभावों का अभाव-रूप कदापि नहीं हो सकता है अर्थात् भाव पदार्थ का अभाव कदापि नहीं होता है और अभाव पदार्थ का भाव कदापि नहीं होता है। जैसे मनोराज के और स्वप्न के पदार्थों का कदापि भाव नहीं होता है, वैसे प्रपंच के पदार्थों का कदापि