SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७५ अठारहवाँ प्रकरण । उत्तर-अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! धनी लोग स्त्री-पुत्र धनादिक अर्थों को संग्रह करके उनको भोगते हैं, और उनके नाश होने पर अत्यन्त दु:खी होते हैं। देखो प्रथिवीं धनपूर्णां चेदिमां सागरमेखलाम । प्राप्नोति पुनरप्येष स्वर्गमिच्छति नित्यशः ॥ १॥ यदि समुद्र पर्यंत धन करके पूर्ण यह पृथिवी पुरुष को मिल भी जावे, तो भी वह स्वर्ग की नित्य ही इच्छा करता संसार में धनवान ही प्रायः करके रोगी दीखते हैं। किसी धनी को क्षुधा का, किसी को प्रमेह आदि का रोग बना ही रहता है । धनियों की परस्पर स्पर्धा बहत रहती है। उनको राजा और चोरों से भय नित्य ही बना रहता है। चोरों के भय से रात्रि को नींद नहीं आती है। धन के संग्रह करने में और धन की रक्षा करने में उनको बड़ा क्लेश होता है। संसार में जितना दु:ख धनियों को है, उतना दुःख गरीबों को नहीं है। धन करके जो विषय-भोगादिकों से सुख है, वह सुख नाशी है, तुच्छ है, इस वास्ते संपूर्ण धनादिक विषय-भोगों के त्यागे विना सुख-रूपी आत्मा की प्राप्ति कदापि नहीं होती है। जैसे वंध्या के पुत्र को असत् जान लेना ही उसका त्याग है। विना असत् जानने के उसका त्याग बनता नहीं है। क्योंकि जो वस्तु तीनों कालों में है ही नहीं, उसका त्याग कैसे किया जावे, इस लिये उसका मिथ्या जानना ही त्याग है। इसी तरह संकल्प-विकल्प-रूपी जितना जगत् है, उसको असत् जान लेना ही उसका त्याग है, इसी वार्ता को अब दिखलाते हैं ।। २ ॥
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy