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________________ अन्वयः। शब्दार्थ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० शब्दार्थ । | अन्वयः । सम्यक् अध्यास आदि | एवम् नियमम् ऐसे नियमको दिविक्षिप्त 2 करके विक्षेप होने विलोक्य-देख करके पर एवम् एव-समाधि-रहित समाधये समाधि के लिये अहम मैं व्यवहारः व्यवहार है । आस्थितः स्थित हूँ॥ भावार्थ । प्रश्न-किसी प्रकार के विक्षप के न होने पर भी समाधि के लिये तो कुछ मन आदिकों को व्यापार करना ही पड़ेगा ? उत्तर-कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि अनर्थों का हेतु जो अध्यास है, उसी करके विक्षेप होता है। उस विक्षेप के दूर करने के लिये समाधि के वास्ते मन आदिकों का व्यापार होता है, अन्यथा नहीं होता है। ऐसे नियम को देख करके प्रथम मैंने अध्यास को दूर कर दिया है, इस वास्ते समाधि के लिये भी मन आदिकों के व्यापार की कोई आवश्यकता नहीं है, किंतु समाधि से रहित अपने आत्मानंद में मैं स्थित हूँ ।। ३ ॥ मूलम् । हेयोपादेयविरहादेवं हर्षविषादयाः । अभावादद्य हे ब्रह्मन्नेवमेवाहमास्थितः ॥ ४॥ पदच्छेदः । हेयोपादेयविरहात्, एवम्, हर्षविषादयोः, अभावात्, अद्य, हे ब्रह्मन्, एवम्, एव, अहम्, आस्थितः ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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