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बारहवाँ प्रकरण।
भावार्थ। अब तीन प्रकार के कर्मों के त्याग के हेतु को कहते हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक ये तीनों कर्म मन की एकाग्रता विषे विक्षप के करनेवाले हैं। लोकान्तर की प्राप्ति करनेवाले जो यज्ञादिक कर्म हैं; उनसे शरीर में विक्षेप होता है। शरीर में विक्षेप के होने से मन का निरोध नहीं हो सकता है । वाणी के कर्म जो निन्दा, स्तुति आदिक हैं, उनसे भी मन का निरोध नहीं हो सकता है, और मन के जो जपादिक कर्म हैं, वे भी मन के विक्षेप करनेवाले हैं। तीनों कर्मों में जो प्रीति है, उसका त्याग करना आवश्यक है । आत्मा अदृश्य है अर्थात् ध्यानादिकों का अविषय है। आत्मा चेतन है, मन, बुद्धि आदिक सब अचेतन हैं याने जड़ हैं। जड चेतन को विषय नहीं कर सकता है, इस वास्ते आत्मा के ध्यान करने की चिन्तारूपी विक्षेप भी मेरे को नहीं है और मैं संपूर्ण विक्षेपों से रहित होकर अपने स्वरूप में ही स्थित हूँ॥ २ ॥
मूलम्। समाध्यासादिविक्षिप्तौ व्यवहारः समाधये । एवं विलोक्य नियममेवमेवाहमास्थितः ॥ ३ ॥
पदच्छेदः । समाध्यासादिविक्षिप्तौ, व्यवहारः, समाधये, एवम्, विलोक्य, नियमम्, एवम्, एव, अहम्, आस्थितः ।।