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________________ १५६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० फिसलते भी हैं, पर तब भी यह तृष्णा उस पुरुष से नहीं त्यागी जाती है ॥१॥ तृष्णे देविनमस्तुभ्यं धैर्यविप्लवकारिणी । विष्णुस्त्रैलोक्यपूज्योऽपि यत्त्वया वामनीकृतम् ॥ २ ॥ हे तृष्णे ! हे देवि ! तेरे प्रति मेरा नमस्कार है, क्योंकि तू पुरुष की धैर्यता नाश करनेवाली है। जो विष्णु तीनों लोकों में पूज्य था, उसको भी तूने वामन याने छोटा बना दिया ॥२॥ हे जनक ! तृष्णा का त्याग ही मुक्ति का हेतु है ॥४॥ मूलम् । त्वमेकश्चेतनः शुद्धो जडं विश्वमसत्तथा । अविद्यापि न किञ्चित्सा का बुभुत्सा तथापि ते ॥५॥ पदच्छेदः । त्वम्, एकः, चेतनः, शुद्धः, जडम्, विश्वम्, असत्, तथा, अविद्या,अपि, न, किञ्चित्, सा, का, बुभुत्सा, यथा, अपि, ते॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः । शब्दार्थ। त्वम्-तू ___ तथा वैसे ही एक: एक सा अविद्या_ शुद्धः शुद्ध ___अपि । वह अविद्या भी चेतनः चैतन्य-रूप है न किञ्चित् असत् है विश्वम् संसार तथा अपि ऐसा होने पर भी जडम्-जड़ ते-तुझको च-और असत्-असत् है बुभुत्सा-जानने की इच्छा है । का-क्या
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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