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________________ दशवाँ प्रकरण | भावार्थ | प्रश्न - यदि तृष्णा - मात्र बन्धन का हेतु माना जावे, तो आत्मज्ञान की प्राप्ति का हेतु भी तृष्णा-बन्धन का हेतु होना चाहिए ? १५७ उत्तर- अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! इस जगत् में तीन ही पदार्थ हैं - एक आत्मा, दूसरा जगत्, तीसरी अविद्या | प्रथम आत्मा के लक्षण को दिखाते हैं सूक्ष्मकारणशरीराद्वयतिरिक्तोऽवस्थात्रयसाक्षी स्थूल सच्चिदानन्दस्वरूपो यस्तिष्ठति स आत्मा ॥ १ ॥ अर्थ- जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीनों शरीरों से भिन्न है और जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं का साक्षी सच्चिदानन्द है, वही आत्मा है ।। १ ।। उसकी प्राप्ति के लिये तृष्णा करना उचित है | अनादिभावत्वे सति ज्ञाननिवर्तत्वमज्ञानत्वम् ॥ २॥ जो अनादिभाव-रूप है, और आत्म-ज्ञान करके निवृत्त है, वही अज्ञान अर्थात् अविद्या है || २ || गच्छतीति जगत् ॥ ३ ॥ जो सदैव गमन करता रहे अर्थात् नदी के प्रवाह की तरह चलता रहे, वही जगत् है || ३ | हे जनक ! तुम इन तीनों में से एक ही चेतन शुद्ध आत्मा हो, अपने आत्मा को ही पूर्ण रूप करके निश्चय करो और जगत् को असत् - रूप करके जानो । अविद्या सदसत् से
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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