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अन्वयः।
दसवां प्रकरण।
१५५ प्राप्त पदार्थ के अधिक प्राप्त होने की इच्छा से और अप्राप्त पदार्थ के प्राप्त की इच्छा से रहित होकर आत्मा में निष्ठा करने से जीव सुखी होता है ॥ ३ ॥
मूलम्। तृष्णामात्रात्मको बन्धस्तन्नाशो मोक्ष उच्यते । भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः ॥ ४ ॥
पदच्छेदः । तृष्णामात्रात्मकः, बन्धः, तन्नाशः, मोक्षः, उच्यते, भवासंसक्तिमात्रेण, प्राप्तितुष्टिः, मुहुः, मुहुः ।। शब्दार्थ । अन्वयः।
शब्दार्थ । तृष्णामा-_/ तृष्णा-मात्र- भवासंसक्ति- संसार में असङ्ग त्रात्मकः । स्वरूप
मात्रेण 1 होने से बन्ध बन्ध है
मुहुःमुहुः वारंवार तन्नाशःउसका नाश
प्राप्तितुष्टिः
पनि आत्मा की प्राप्ति मोक्षमोक्ष
। और तृप्ति होती है । उच्यते कहा जाता है
भावार्थ । तृष्णा-मात्र का नाम ही बन्ध है और उसके नाश का नाम मोक्ष है, 'योगवाशिष्ठ' में कहा है
च्युता दन्ताः सिताः केशा दृङ निरधोः पदे पदे। यातसज्जमिमं देहं तृष्णा साध्वी न मुञ्चति ॥ १॥
अर्थात् पुरुष के दाँत टूट भी जाते हैं, केश श्वेत हो जाते हैं, नेत्र की दृष्टि कम भी हो जाती है और कदम-कदम पर पांव