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अन्वयः।
नवां प्रकरण ।
पदच्छेदः । कृत्वा, मूर्तिपरिज्ञानम्, चैतन्यस्य, न, किम्, गुरुः, निर्वेदसमता युक्त्या, यः, तारयति, संसृतेः ।। शब्दार्थ । अन्वयः ।
शब्दार्थ। निर्वेदसमता_ / वैराग्य, समता । संसृते:-संसार से
युक्त्या । और युक्ति द्वारा । + स्वम्-अपने को चैतन्यस्य-चैतन्य के
तारयति-तारता है भूतिपरिज्ञानम् मूर्ति के ज्ञान को
किम्-क्या कृत्वा-जानकर
सः वह यः-जो
गुरुः न-गुरु नहीं है ।
भावार्थ । अष्टावक्रजी कहते हैं कि हे जनक ! जिसने विषयवासना को त्याग करके शत्रु और मित्र में समबुद्धि करके, और श्रुति के अनुकूल युक्ति से सच्चिदानन्द-रूप अपने आत्मा का साक्षात्कार किया है, और जिसने अपने को ही सर्वरूप से अनुभव किया है, उसने संसार से अपने को तारा है, दूसरा नहीं। हे जनक ! तुम अपने ही पुरुषार्थ से मुक्त होगे, दूसरे करके नहीं होगे।
प्रश्न-संसार में लोग कहते हैं कि गुरु शिष्य को मुक्त कर देता है । आप उसके विरुद्ध ऐसा कहते हैं कि शिष्य अपने पुरुषार्थ से ही मुक्त होता है, यह क्या बात है ?
उत्तर-हे प्रियदर्शन ! संसार के लोग प्रायः करके अज्ञानी मूर्ख होते हैं, वे शास्त्र के तात्पर्य को और गुरु-शिष्य शब्दों के अर्थ को नहीं जानते हैं। क्योंकि वे कामना करके