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१४२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० आत्म-विद्या करके वह मोक्ष को प्राप्त होता है, इसलिये विवेकी आत्म-ज्ञानी कर्मों को नहीं करते हैं, किन्तु आत्मानिष्ठा में ही मग्न रहते हैं ॥ १ ॥
जैमिनि आचार्य का मत भी श्रुति-युक्ति से विरुद्ध है, क्योंकि जैमिनि आत्मा को जड़, चेतन उभय-रूप मानते हैं, और स्वर्ग की प्राप्ति को ही मोक्ष मानते हैं।
एक ही पदार्थ जड़, चेतन उभय-रूप नहीं हो सकता है। क्योंकि इसमें कोई भी दृष्टान्त नहीं मिलता है। फिर चेतन निरवयव है, और जड़ सावयव और अनित्य है । शीत, उष्ण जैसे परस्पर विरोधी हैं, वैसे ही उभय-रूप जड़, चेतन भी विरोधी हैं। और वेद में भी कहीं आत्मा को उभयरूपता नहीं लिखी है, और न स्वर्ग की प्राप्ति का नाम भी मोक्ष है। तद्यथेह कर्मचितो लोकःक्षीयत एवामुत्र पुण्यचितो लोकःक्षीयते।
श्रुति कहती है कि जैसे इस लोक में कर्मों करके प्राप्त की हुई खेती काल पा करके नष्ट हो जाती है, वैसे ही पुण्यकर्मों करके प्राप्त हुआ स्वर्ग भी नष्ट हो जाता है। इन श्रुतिवाक्यों से स्वर्ग की अनित्यता सिद्ध होती है। और जब स्वर्ग ही अनित्य है, तो मुक्ति भी अनित्य अवश्य होगी। इस वास्ते जैमिनि का मत आत्म-ज्ञान निष्ठावाले को त्यागना चाहिए ॥ ५ ॥
कृत्वा मूत्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न कि गुरुः । निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृतेः ॥ ६ ॥