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१४४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० होते हैं। जैसे कि मुसलमानों ने मान रक्खा है कि पैगम्बर हमको पापों से छुड़ा देगा। एवं जैसे ईसाइयों ने मान रक्खा है कि ईसा हमको पापों से छुड़ा देगा वैसे ही और भी संसारी लोगों ने मान रक्खा है कि गुरु हमको पापों से छुड़ा देगा, ऐसा उनका मानना दु:ख का जनक है। क्योंकि वेद और शास्त्र में कान में मंत्र फूंकनेवाले को गुरु नहीं लिखा है, किन्तु जो अज्ञान और ज्ञान के कार्य जन्ममरण-रूपी संसार से आत्म-ज्ञान उपदेश करके छुड़ा देवे, और चित्त के संशयों को दूर कर देवे, उसका नाम गुरु है, मन्त्र फूंकनेवाले का नाम गुरु नहीं है। रामचन्द्रजी ने वशिष्ठजी के प्रति हजारों शंकाएँ की थीं और जब सबका उत्तर वशिष्ठजी ने देकर रामजी को संशयों से रहित करके आत्मा का बोध करा दिया, तब रामजी ने वशिष्ठजी को गुरु माना । अर्जुन ने श्रीकृष्णजी के प्रति हजारों शंकाएँ की थीं। जब अर्जुन को भगवान् ने विराट्रूप दिखाया, तब उनको अर्जुन ने गुरु माना । इसी तरह और भी पूर्व जितने श्रेष्ठ पुरुष हए हैं, उन्होंने चित्त के सन्देह दूर करनेवाले को ही गुरु करके माना है । सो भी व्यवहार-दृष्टि से ही माना है, आत्म-दृष्टि से नहीं माना है। क्योंकि आत्म-दष्टि में आत्मा का भेद नहीं है।
अष्टावक्रजी ने आत्म-दृष्टि को ले करके कहा है कि संसारी मूर्ख कान में मंत्र फूंकनेवाले गुरु के ही अज्ञानार्थ शिष्य पूरे पशु बन जाते हैं, क्योंकि उनको बोध नहीं है कि पारमार्थिक गुरु आत्म-ज्ञानी का ही नाम है। ऐसे गुरु तो संसार में बहुत दुर्लभ हैं। दूसरा गुरु गायत्री का मन्त्र