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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
इति ज्ञानम्-
ज्ञान है ।।
एतस्य इसका
न लयःन लय है न त्यागः-न त्याग है
इस प्रकार का न ग्रह-न ग्रहण है च और
भावार्थ । प्रश्न-शुक्ति में रजत के दृष्टांत करके भी आत्मा को परिच्छिन्नता की शंका होती है, क्योंकि जैसे शक्ति परिच्छिन्न और एकदेशवर्ती है, वैसे ही आत्मा भी परिच्छिन्न और एकदेशवर्ती सिद्ध होगा ?
उत्तर-जनकजी कहते हैं, कि मैं ही सम्पूर्ण भूतों में व्यापक-रूप करके मणियों में सूत की तरह वर्तता हूँ, मैं ही सबका अधिष्ठान-रूप होकर सत्ता और स्फूर्ति का देनेवाला हूँ, मेरे में ही सारा जगत् आकाश में नीलता की तरह अध्यस्त है । इस प्रकार का दान्त वाक्यों करके सिद्ध ज्ञान अर्थात् अनुभव आत्मा के अद्वैत होने में प्रमाण है । और जब मैं हूँ, तो मेरे में ग्रहण, त्याग और लय चिंतनादिक भी नहीं बनते हैं ॥ ४ ॥ इति श्रीअष्टावक्रगीतायां षष्ठं प्रकरणं समाप्तम् ॥ ६ ॥