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सातवाँ प्रकरण।
मूलम् । मय्यनन्तमहाम्भोधौ विश्वपोत इतस्ततः। भ्रमति स्वान्तवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता ॥१॥
पदच्छेदः । मयि, अनन्तमहाम्भोधौ, विश्वपोतः, इतः, भ्रमति, स्वान्तवातेन, न, मम, अस्ति, असहिष्णुता ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ । मयि अनन्त-_/ मुझ अनन्त
भ्रमति-भ्रमती है महाम्भोधौ । महासमुद्र में
+ परन्तु-परन्तु विश्वपोतः विश्व-रूपी नौका
मम मुझको स्वान्तवातेन-मन-रूपी पवन करके । असहिष्णुता=असहनशीलता इतः ततः इधर-उधर से __न अस्ति नहीं है।
भावार्थ । प्रश्न-यदि लय चितन नहीं होगा, तो सांसारिक विक्षेप भी बने रहेंगे और वे कदापि दूर नहीं होंगे ?
उत्तर-वे बने रहे, मेरी क्या हानि है। अनन्त महान् समुद्र-रूपी मुझ आत्मा में यह विश्व-रूपी नौका मन-रूपी पवन करके इधर-उधर भ्रमती है, उसका भ्रमण करना मेरे को असहन नहीं है । जैसे समुद्र में पवन करके इधर-उधर