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भावार्थ । प्रश्न-जैसे सब बीचियां समुद के विकार हैं और समुद्र विकार है, वैसे आपके दृष्टान्त से देह आत्मा का विकार है, और आत्मा विकारी सिद्ध होता है ?
उत्तर-अष्टावक्रजी कहते हैं कि विकार-विकारीभाव सावयव पदार्थों में होते हैं, निरवयव पदार्थ में नहीं होते हैं, इसलिये तुम्हारा दृष्टान्त सार्थक नहीं है, अतएव मेरे दृष्टान्त को सुनो
जैसे शुक्ति सत्य-रूप है और उसमें रजत मिथ्या है, वैसे ही देहादिक समग्र प्रपंच का अधिष्ठान-रूप मैं ही सत्य है और सारा प्रपंच मेरे में कल्पित रजत की तरह मिथ्या है। इसी कारण द्वैत तीनों कालों में सिद्ध नहीं हो सकता है ॥ ३ ॥
मूलम् । अहं वा सर्वभूतेषु सर्वभूतान्यथो मयि । इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः ॥ ४ ॥
पदच्छेदः । अहम्, वा, सर्वभूतेषु, सर्वभूतानि, अथो, मयि, इति; ज्ञानम्, तथा, एतस्य, न, त्यागः, न, ग्रहः, लयः ।। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । अहम् =मैं
सर्वभूतानि-सब भूत वा-निश्चय करके
मयि-मुझमें सर्वभूतेषु सब भूतों में हूँ,
सन्ति हैं अथो और
तथा इस कारण से
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अन्वयः।