SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० भावार्थ । प्रश्न-घटाकाश के दृष्टांत से तो देह और आत्मा के भेद की शंका उत्पन्न होती है। जैसे आकाश से घट भिन्न है, और घट से आकाश भिन्न है, वैसे आत्मा से देह भिन्न है, और देह से आत्मा भिन्न है, दोनों के भिन्न-भिन्न होने से ही द्वैत साबित हुआ, अद्वैत आत्मा तो साबित न हुआ ? उत्तर-जनकजी कहते हैं कि आत्मा महान् समुद्र की तरह है, उसमें प्रपंच लहरों की तरह है। इस प्रकार का अनुभव-रूप ज्ञान ही अद्वैत में प्रमाण है ।। २ ।। मूलम् । अहं सः शुक्तिसङ्काशो रूप्यवद्विश्वकल्पना । इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः ॥ ३ ॥ पदच्छेदः । अन्वयः। अहम्, सः, शुक्तिसंकाशः, रूप्यवत्, विश्वकल्पना, इति, ज्ञानम्, तथा, एतस्य, न, त्यागः, न, ग्रहः, लयः ।। ___ शब्दार्थ । । अन्वयः। शब्दार्थ। सः-वह तथा इसका कारण अहम्-मैं एतस्य इसका शुक्तिसंकाशः=शुक्ति के तुल्य हूँ न त्यागः-न त्याग है विश्वकल्पना-विश्व की कल्पना न लयःन लय है रूप्यवत् रजत के समान है । इति ज्ञानम्य ही ज्ञान है ।।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy