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को 'चारित्र' कहते हैं और ऐसा कहते हैं कि 'चारित्र के बिना मोक्ष नहीं है'। लेकिन कौन सा चारित्र? वीतरागों का या लोगों का माना हुआ?
सम्यक् दर्शन से चारित्र में नहीं आ सकते, ज्ञान से आ सकते हैं। पहले दर्शन से ज्ञान में आते हैं और फिर उसमें से चारित्र में आते हैं।
जहाँ कषाय नहीं होते, वह चारित्र उच्च है, लेकिन वास्तव में तो ज्ञाता-दृष्टा रहना, वही चारित्र है। फिर बुद्धि इमोशनल नहीं करती, जहाँ बुद्धि उत्पन्न हो जाए वहाँ पर इमोशनलपना आता ही है।
महात्मा और अज्ञानियों की प्रतिक्रिया में क्या फर्क है ? पूरी तरह से अलग है। अज्ञानी भगवान जैसी बात करता है लेकिन उसके आर्तध्यान और रौद्रध्यान निरंतर चलते ही रहते हैं! और महात्माओं में आर्तध्यान और रौद्रध्यान बंद ही हो जाते हैं। उसे 'संसार में रहकर भी मोक्ष' कहा गया है।
जो ज्ञान और अज्ञान को एक न होने दे, उसे चारित्र कहते हैं और एक नहीं होने देने में जो कष्ट होता है उस समय जो तप करना पड़ता है वह मोक्ष का तप कहलाता है।
पुद्गल के हर एक परिणाम को, हर्ष के या शोक के, उन्हें पर परिणाम जाना, तो वह सम्यक् चारित्र कहलाता है।
दर्शन शुद्धि यानी दर्शन मोह खत्म हो जाता है। दर्शन मोह खत्म होने के बाद बाह्य संयोगों में तन्मयाकार हो जाना, वह चारित्र मोह है और जो ज्ञान उस चारित्र मोहनीय को देखता है, वह सम्यक् चारित्र है।
अक्रम में दादाश्री ने महात्माओं को सम्यक दर्शन में ही नहीं बल्कि सम्यक् चारित्र में बिठा दिया है। उसके बिना मिथ्यात्व मोहनीय रहता
है।
परमार्थ समकित का अर्थ क्या है? निरंतर ऐसा लक्ष्य में रहना कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ'। उसे चारित्र की भूमिका में आना कहते हैं। जैसे-जैसे चारित्र मोहनीय कम होता जाता है वैसे-वैसे शुद्ध चारित्र बढ़ता जाता है। जब तक चारित्र मोहनीय रहता है तब तक केवलचारित्र प्रकट नहीं हो सकता।
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