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संयम और चारित्र में क्या फर्क है ? संयम परिणाम ही चारित्र है। वह क्षयोपक्षम में है, क्षायिक नहीं है। संयम परिणाम बंद हो जाएँ तो वह क्षायक चारित्र है!
सराग चारित्र बहुत उच्च चीज़ है। वह ज्ञानियों में होता है। संपूर्ण ज्ञानी हो जाने पर वीतराग चारित्र। उनमें किंचित्मात्र भी राग-द्वेष नहीं रहता। सौ प्रतिशत वीतरागता होती है।
आत्मा का ज्ञान-दर्शन-चारित्र, इस प्रकार से अलग-अलग विभाग नहीं होते। यह तो वहाँ तक पहुँचते हुए, रास्ता पार करते हुए आता है तो उसमें पहले दर्शन, उसके बाद ज्ञान और फिर चारित्र! लेकिन है मूल वही का वही। खुद ज्ञाता-दृष्टा और परमानंद उसका चारित्र, वह परिणाम है।
मोक्ष में जाते हुए दो प्रकार के ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप हैं। एक व्यवहार में, दूसरा निश्चय में। व्यवहार ज्ञान, व्यवहार दर्शन, व्यवहार चारित्र, व्यवहार तप, वे सब बाह्य हैं। अशुभ छोड़कर शुभ में आना, वह शुभ चारित्र है। उसके बाद शुद्ध चारित्र आता है। शुभ चारित्र में मानअपमान नहीं रहता, कीर्ति की वासना नहीं रहती, खुले कषाय नहीं होते। उसमें आत्मा की पहचान नहीं हुई होती और यदि पहचान हो जाए तो वह सम्यक् चारित्र है जो कि मोक्ष का है।
देहाध्यास खत्म होने के बाद सम्यक् चारित्र उत्पन्न होता है, वर्ना लौकिक चारित्र कहलाता है।
महात्माओं के चारित्र का लक्षण क्या है ? आत्म दृष्टि से देखना व जानना, वही चारित्र है। उसमें मन-बुद्धि से नहीं देखना होता।
खुद के मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार को देखता रहे, वह चारित्र। ज्ञाता-दृष्टा और परमानंद में रहना, वह आत्मा का चारित्र है।
चारित्र बरत रहा हो तो उसके लक्षण क्या है ? वीतरागता। खुद यदि जानपने में रहे तो वह सम्यक् चारित्र है।
खुद ज्ञाता-दृष्टा रहा फिर भी ज्ञेय में ज्ञेयाकार हो गया तो उस समय ज्ञान है लेकिन चारित्र नहीं है। अर्थात् पूरी तरह से बदला नहीं है।
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